पहाड़ वासियों ने रामचन्द्र के अयोध्या आने की खुशी मनाई थी ढोल दमऊ की थाप पर भैलो खेलकर
वर्षों तक उस बैलों की जोड़ी के कंधों पर हल रखकर खेत जोते गए। खेती में दिन-दूनी रात चौगुनी उन्नति होती गई। अपने साथी ग्वारा के साथ ही बुल्ला भी उस घर के लोगों की जान था। लेकिन, एक दिन जंगल से घास चरकर लौटते समय बुल्ला की आंख में किसी पेड़ की नुकीली टहनी चुभ गई। एक ही आंख रह जाने के कारण उसकी कहीं कुछ और बड़ी क्षति न हो जाए यह सोचकर उसे अब घर पर ही घास पानी दे दिया जाता। उम्र भी हो चली थी अब, इसलिए खेती के कार्यों से भी उसे अवकाश दे दिया गया।बुल्ला भी ज्यादा चलने में असमर्थ महसूस करता और पड़ा रहता खूंटे के पास ही।
इधर, फसल कटाई के बाद वक्त था मंड़ाई का। खलिहान सज गए थे अनाज की बालियों के ढेर और गांव भर के किसानों के कई जोड़ी बैलों से।
कहावत भी है कि एक हाथ भंडार और सौ हाथ खलिहान।
बैलों का मुंह बांधकर खलिहान में बिछाई सूखी बालियों पर उन्हें गोल-चक्कर में घुमाने का काम शुरू हो गया। मंडाई की इस प्रक्रिया “दैं” ने जैसे ही क्रम पकड़ा था, देखते क्या हैं कि बुल्ला अपनी जगह से उठकर धीरे-धीरे खलिहान की तरफ आ रहा है और बिना किसी निर्देश के उसने खलिहान में गोल-गोल घूमना शुरू कर दिया।
अन्य बैलों की तरह उसके मुंह पर न कपड़ा बांधा गया और न कोई सोंटी ही उसकी पीठ पर चली। बस जब तक वह थक न गया, चलता रहा! चलता रहा! बुल्ला को देखकर हर कोई गदगद हो गया। सबने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की, “देखो! पूरा जीवन इसने अपने कंधों पर हल उठाकर खेतों की मेहनत में बिता दिया और आज बुढ़ापे में भी अपने कर्तव्य को भूला नहीं है।
फसल का सारा काम निबट जाने के बाद अब बारी थी त्यौहार मनाने की। सर्दियों की शुरुआत और कार्तिक के महीने में घर की स्त्रियों ने नए कुटे धान का भात बनाया। उधर, पुरुषों ने खलिहान में सारे जानवरों को इकट्ठा कर दिया। बच्चों ने गेंदे के फूलों की मालाएं बनाईं। धूपबत्ती और दीपक जलाकर पूजा की थाली सजाई गई। फिर सबने मिलकर गाय और बैलों के खुर पानी से धोए। बड़े स्नेह और अपनत्व से उनके सीगों पर तेल चुपड़ा.. आरती उतारी। खलिहान में इस बार एक जोड़ी नये बैल और उपस्थित थे, नाम थे दालिमा और मोती। खेती के कार्यों में बुल्ला और ग्वारा की जगह इन्होंने ले ली थी।
घर की बुजुर्ग महिला पूरी, कचौड़ी, सहित नये पकाए अनाज के पिंडों पर बच्चों से गेंदे के फूल लगवा सभी जानवरों के लिए पत्तलें सजा रही थी। वह चौक गईं भात की गोले कम देख कर।
उन्होंने बहू से पूछा -भात के गोले कम क्यों हैं?
बहू ने जवाब दिया “नये बैलों की जोड़ी दालिमा और मोती के लिए पर्याप्त हैं” “और.. बुल्ला, ग्वारा के लिए”? वह चौंक कर बोली।
“उन्हें भी भात खिलाया जाएगा? मैंने उनके लिए मंडुवा और झंगोरा के पिंड बनाए हैं”।
वृद्धा के विषाद की सीमा न रही।
“जिन्होंने उम्र भर काम करके हमारे भंडार भरे हैं, आज बुढ़ापे में उनके लिए नये धान का भात नहीं है”?
बहू को अपनी गलती का एहसास हो गया। भूल पर पश्चाताप करते हुए उन्होंने तुरंत बुल्ला और ग्वारा को पुचकारकर, सहलाकर अपने हाथ से भात खिलाया।
यह एक दृश्य है उत्तराखंड के पर्वतीय भागों में दिवाली की पारंपरिक शुरुआत का। असल में पहाड़ की खेती-किसानी और आर्थिकी हमारे जानवरों पर ही निर्भर करती है। इसलिए हमारे त्यौहारों में इन्हें परिवार के सदस्यों की तरह ही शामिल किया जाता है। यह तरीका है उनके प्रति आभार, सम्मान और कृतज्ञता व्यक्त करने का। जहां खेती थोड़ा कम होती है, वहां के लोग भी अपने जानवरों को यह आदर देना नहीं भूलते क्योंकि साग-सब्जी, दाल इत्यादि की कमी गाय के दूध-दही, घी से ही पूरी हो जाती है। जहां पानी की कमी या पथरीली जमीन के कारण चावल और गेहूं उगाने लायक भौगोलिक परिस्थितियां नहीं होती, वहां के लोग मोटे अनाज की रोटियां और छाछ का लोटा भर पी-पीकर के भी तमाम उम्र स्वस्थ जीवन गुजार देते हैं। घास के साथ-साथ गाय निश्चित रूप से जड़ी-बूटियां भी तो चर जाती होंगी, तभी तो दूध के साथ-साथ आयुर्वेद भी मुफ़्त में ही उनके शरीर में प्रवेश कर जाता है। मजाल क्या कि कभी कोई रोग- ब्याध शरीर को छू भी जाए।
अपने जानवरों, अपनी गौशालाओं को ही उन्होंने अपनी डिस्पेंसरी मान लिया। आश्चर्य नहीं जो आज भी कई बुजुर्ग यह कहते हुए मिल जाएंगे कि हॉस्पिटल कैसा होता है, उन्हें पता ही नहीं! कोई दवाई उन्होंने कभी खाई नहीं।
यही कारण है अपने जानवरों को इतना मान-सम्मान देने का। कार्तिक मास की अमावस्या को श्रीरामचंद्र जी की लंका से वापसी पर दीपावली का त्यौहार मनाए जाने का तथ्य यहां वर्तमान तिथि पर लागू नहीं होता है। कहा जाता है कि उनके अयोध्या वापसी की सूचना पहाड़वासियों को ग्यारह दिन बाद मिली थी । तब उसी दिन उन्होंने दीपोत्सव मनाया था। उस दिन एकादशी होने के कारण इसे इगास कहा जाता है। तब कहां था इतना तेल और कहां दिये ? पटाखे का चलन भी नहीं था तब। फसल कटने के बाद खाली पड़े खेतों में भीमल पेड़ की सुखाई हुई रस्सियों को गोल घेरे (भैलो) में उजाला किया गया। ढोल-दमाऊ की सुखद थाप पर नाच-गाकर रामचंद्र जी के अयोध्या वापसी की खुशी मनाई गई।
सदियों पहले हूण, शक, मुगल.. आक्रांताओं से त्रस्त हो जो मैदानी रहवासी पहाड़ों की ओर भाग गए थे, उनके धर्म और जीवन की रक्षा में पहाड़ की दुरुहता ने ही कवच का काम किया था।
कोरोना महामारी के भय से जो लौटकर आ गए हैं फिर अपने घर-आंगन में, पहाड़ एक बार फिर तैयार है उन्हें अपनाने के लिए। क्या वो तैयार होंगे इसे फिर से रोशन करने के लिए?
पुनर्जीवित करें पहाड़ पर पशुओं का संबंध। खाली होते जा रहे गांवों में पलायन के दर्द से उबरने के लिए यही संजीवनी काम कर सकती है परंपराओं में आज भी अमृत बसता है। चखकर तो देखिए।
प्रतिभा की कलम से