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कवि जीके पिपिल की गज़ल… सुकून की तलाश को चैन तक गये क़रार तक गये

जीके पिपिल
देहरादून, उत्तराखंड

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गज़ल
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सुकून की तलाश को चैन तक गये क़रार तक गये
कहीं कुछ नहीं मिला हम रूह की मज़ार तक गये।

ये बदनसीबी ही है जो दुआओं का असर ना हुआ
पतझर पतझर ही बने रह गये भले बहार तक गये।

किसी रहनुमा की दिखाई रौशनी भी काम ना आई
भले ही हम अँधकार की आख़िरी क़तार तक गये।

वक़्त की गर्दिश में उतरते चले गये सब रिश्ते नाते
ताल्लुक़ात सभी पुराने ही नहीं बरक़रार तक गये।

ख़ुद की दौलत से हम कभी सुकून ना ख़रीद सके
बल्कि इसमें तो ख़ानदानी ख़ज़ाने बेकार तक गये।

वो मंचन किया दुनियाँ के रंगमंच के कलाकारों ने
कि ज़िंदगी रूपी नाटक में डूब क़िरदार तक गये।

तूफ़ान में भी कभी हमने अपना हौंसला ना छोड़ा
भले नाव डगमगाई हाथों से छूट पतवार तक गये।

सर पर दुआओं के हाथ थे तो सही सलामत लौटे
भले ही हम टूटी कश्ती के साथ मझधार तक गये।

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