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वरिष्ठ कवि जीके पिपिल की ग़ज़ल… मोहब्बत में गँवाया था गँवाया है कमाया कुछ नहीं

जीके पिपिल
देहरादून, उत्तराखंड

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ग़ज़ल

मोहब्बत में गँवाया था गँवाया है कमाया कुछ नहीं
जिस का जो था सब लौटा दिया बकाया कुछ नहीं।

मोहब्बत भी किसी ने की तो तिज़ारत की तरह की
अपना तो बड़ा घाटा हुआ बचा सरमाया कुछ नहीं।

उम्रदराज़ क्या हुये फल फूल पत्ते सब ही चले गये
अब ठूंठ हैं हमारे पास हमारे लिये साया कुछ नहीं।

क्या हम ठूंठ आज किसी के कुछ काम के नहीं हैं
यही सोचकर दिल उचाट है पर घबराया कुछ नहीं।

जब जब भी किसी ने पूछा है अपना हालचाल तो
ज़ख्मों के आईना बन गये हमने छुपाया कुछ नहीं।

दुनियाँ ने लाख पूछा हमसे तुम्हारे इश्क़ के बारे में
हम गूंगे बहरे बन गये किसी को बताया कुछ नहीं।

आज ग़ैरों से गिला कैसा अपनों से शिकायत कैसी
जब सभी ने बढ़ाया ग़म किसी ने घटाया कुछ नहीं।

वो लोग भी ख़ज़ानों की खोजों में ज़मीन खोदते हैं
जिनके बाप दादों ने जिनके लिये दबाया कुछ नहीं।

हम वक़्त की साज़िश के शिकार हुये वही बच्चे हैं
जिन्हें बड़ों ने मेले में घुमाया पर दिलाया कुछ नहीं।

अब वो बेइंसाफी की गैर बराबरी की बात करते हैं
जिन्होंने सदा मुल्क़ को उजाड़ा सजाया कुछ नहीं।।

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