गांधी जयंती पर विशेष: नीलम पांडेय “नील” की एक रचना… बापू…एक विचार
नीलम पांडेय “नील”
देहरादून, उत्तराखंड
————————————————————
गाँधी का सामाजिक चिन्तन
शोध – सारांश
लेखक: नीलम पांडेय
देहरादून, उत्तराखंड
‘गाँधी, खादी और आजादी गोरों की बरबादी थी,
अहिंसा, अदृश्य, अमूक, हक हकूक की लाठी थी” ।
एक महान नेतृत्व के लिऐ उच्च आदर्शो की आवश्यकता होती है इसके बिना एक अच्छे समाज की कल्पना नही की जा सकती है । समाज को सही पथ पर ले जाने के लिऐ इसका होना अत्यंत आवश्यक है । जहाँ आदर्श नही है वहाँ लक्ष्य नही है । गांधी जी ने इन्ही आर्दशों को अपनाकर, समाज में अपनी सजीव अभिव्यक्तियाँ दी और समाज के हर एक वर्ग ने उन अभिव्यक्तियों में कहीं ना कहीं स्वयं को महसूस किया तथा उस समय तथा देशकाल परिस्थियों में उसकी महती आवश्कता को देखते हुऐ असंख्य लोग उनके विचारों के साथ जुड़ते चले गये । गांघी जी जानते थे कि समाज में सामाजिक चेतना का बीज मंत्र एक साथ एकमेव चिंतन कर चलने में है।
उन्होंने अलग-अलग रंगों के मोतियों को एक ही धागे में पिरोने की कोशिश की, ताकि हर रंग, हर एक के जीवन में अपना स्थान और महत्व बना सके जिसमें कहीं, किसी को अधिक महत्व मिलने और किसी को कम महत्व मिलने जैसी बात ना होकर सब के समान महत्व के साथ चलने की बात होगी । सच्चे मन से सन्मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति को समाज के हर एक व्यक्ति से प्रेम होने लगता है और वह समाज हित के लिऐ जो बन पड़ता है अपनी सार्मथ्य और इच्छा शक्ति के बलबुते करते भी हैं । उसी प्रेम से किऐ गये कार्यो के फलस्वरुप उस समय, जनमानस का एक बड़ा भाग गांधी जी के साथ – साथ चलने लगा क्योकि लोग समझ गये कि यदि समाज की विसंगतियों से बाहर निकलना है तो नयी विचारधारा के प्रवाह को आत्मसात करना होगा।
गांधी जी अपनी दृढ़ इच्छा शक्ति और अनुशासन के बल पर लोगों के मन में स्थान बनाते हुऐ चलते रहे और समाज को मुख्यधारा से जोड़ने के लिऐ विभिन्न प्रयासों में चिन्तनशील रहे । प्रेम के सहज भाव से किये गये समाज कार्य के प्रयासों तथा उनके द्वारा दिये सिद्वांतो को जनमानस ने साकारात्मक रुप से लिया और समाज के चिंतन में स्वयं की भागीदारी भी सुनिश्चित की ।
बापू……एक विचार
बापू वे लोग
भूल गये कि
वो समय अलग था
विषय अलग था
“जिसकी होती है सत्ता
वही होता है तुरूप का पत्ता”
सच कहूँ तो गुलाम
आदमी में
गुलाम भारत था ……
फूल, पौंधे, पत्ते तक सहमे होंगे
उनकी अंग्रेजी ताकत में
अपनी हिन्दी डरी- डरी सी होगी
कई बीर सहादत कर गये
कुछ बगावत कर गये
सब याद है
माना कि सबने मिलकर गोरों को खदेड़ा
कुछ ने प्रभात फेरी सजायी
कुछ ने बंदूकें उठायी
अपने – अपने नारे थे
अपनी अपनी तरकीबें भी
कुछ जोश, कुछ में होश
कुछ में सीनाजोरी थी ….
हालाँकि आगे बढ़ने की
अद्भुत बीरों की टोली थी
पर आसान नही हुआ होगा बापू
जिसकी सत्ता उसका खंडन
तब जो आपने राह सुझाई
बिगड़ी बात बनायी …… होगी
गर हिंसा का ही सिर्फ खेल होता
माना आज भी पाकिस्तान अपना होता
तब क्या हो जाता
आतंकवाद का बीज भारत में उगता
अच्छा हुआ जो जंगली घास सीमा के
बाहर उगायी …
तुम अडिग
विचार
एक सिद्धांत बने
सत्य अहिंसा के अनुयायी
दुश्मन ने भी की अगुवाई
बांधे सामान चल पड़े समुदायी
बापू …..खोज रहें हैं वो तुमको
जिनकी पीढ़ियाँ तुम पर इठलाई …
लेकिन जिस जिस ने तब अंग्रेजी मलाई खायी
आज उनके ही अनुज करते हैं जग हसांयी
मुर्तियाँ सुन नही सकती,
बोल नही सकती,
कह नही सकती,
इसलिए उन्होंने शब्द हिंसा अपनायी ।
बापू, जो रक्त पीया करते हैं
वे अहिंसा से डरा करते हैं ….