प्रतिभा की कलम से… उजली शख्सियतों पर भी सार्थक फिल्म बने तो समझा जाए कि सिनेमा समाज का आईना है
प्रतिभा की कलम से …
बात आज़ादी से पहले की है, जब पौड़ी गढ़वाल जिले के थलीसैंण ब्लॉक में दीपा नौटियाल का जन्म हुआ। जन्म के दो बरस के भीतर ही उसकी मां चल बसी और फिर पांच बरस की उम्र में पिता भी। सात बरस तक चाचा-चाची ने पाला और फिर उसका विवाह उससे सत्रह साल बड़े आदमी से कर दिया गया। उसका पति एक गुणी फौजी आदमी था। उसने दीपा को बहुत प्रेम से रखा। दीपा को अपने साथ लेकर वह रावलपिंडी आ गया। लेकिन, दीपा और दुर्भाग्य का तो जैसे चोली-दामन का साथ था। मात्र उन्नीस बरस की अल्पायु में ही वह विधवा हो गई।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान पति शहीद हो गए थे। दीपा तो पहले से ही अनाथ थी और चाचा-चाची भी उसका ब्याह कर अपना फ़र्ज़ निभा चुके थे। ससुराल वालों ने भी उसे अपशकुनी कहकर अपनाने से इनकार कर दिया। अब कौन सा घर बचा जहां दीपा लौट कर आए? वह रावलपिंडी से लाहौर के एक मंदिर में गई, जहां कुछ दिन रहकर उसने किसी संन्यासिन से सन्यास की दीक्षा ले ली। अब दीपा नौटियाल का नया नाम था ‘इच्छा गिरी माई’। कुछ दिन लाहौर में रहने के बाद इच्छा गिरी माई हरिद्वार आ चुकी थीं। वह हैरान थी अपने साथी सन्यासियों के कुकर्मों को देखकर जो छुप-छुप कर मांस-मछली का सेवन करते थे। छुप-छुपकर भांग पीते थे।
इच्छा गिरी माई का मोहभंग हो गया उस कुत्सित वातावरण से और वह वहां से भाबर चली आईं। यहां माई एक कुटिया बनाकर रहने लगी। माई ने देखा कि यहां की माता और बहनों के लिए पानी का बहुत कष्ट है। तमाम प्रयासों के बाद भी जब पानी की समस्या का कोई समाधान नहीं निकला तो उन्होंने दिल्ली जाने का निश्चय किया। वहां उन्होंने प्रधानमंत्री आवास के बाहर धरना शुरू कर दिया। एक दिन जब नेहरू जी गाड़ी में बैठकर घर से कार्यालय की तरफ जा रहे थे तो इच्छा गिरी माई उनकी गाड़ी के आगे लेट गईं। नेहरू जी ने गाड़ी रुकवाकर उनके विरोध का कारण पूछा। माई को उस वक्त बुखार भी था। ज्वर से तप्त कांपते शरीर के साथ उन्होंने नेहरू जी का हाथ पकड़ा और आक्रोश के साथ बोलीं- बता पानी देगा या नहीं?
नेहरू जी ने उनका उपचार करवाने के निर्देश देने के साथ कहा- ‘पानी मिलेगा,जरूर मिलेगा’। कुछ ही दिनों में भाबर क्षेत्र में पानी की समस्या हल हो गई। लेकिन, वहां एक आदमी ने अपनी ज़मीन से उनकी कुटिया हटा दी। माई ने कुछ नहीं कहा। सन्यासियों का कहां कुछ अपना होता है, यही सोचकर वह वहां से कोटद्वार के मोटाढ़ाक चली आईं। वहां एक व्यक्ति ने उन्हें कमरा रहने को दे दिया। मोटाढ़ाक में माई को शिक्षा का नितांत अभाव नज़र आया। इसलिए उन्होंने प्रशासन से स्कूल खुलवाने की अपील की। लेकिन, किसी के कानों पर कोई जूं नहीं रेंगी तो अपनी जमा पूंजी से उन्होंने एक खाली जमीन पर खुद ही ईंटें डलवानी शुरू कर दीं। अब रामपुर के कलेक्टर साहब ने अफसरों को लताड़ा और जल्द ही वहां पर एक स्कूल बनकर तैयार हो गया। स्कूल का नाम इच्छा गिरी माई के पति के नाम पर रखा गया।
इसके अलावा उस क्षेत्र भी में पानी की बहुत कमी थी। वह लखनऊ गईं और सचिवालय के अफसरों से उस क्षेत्र में पानी की कमी पूरी करवाने के लिए अपील की। मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत ने मामले की जानकारी लेकर मोटाढ़ाक में पानी की कमी को पूरा कर दिया। इस तरह उस क्षेत्र में भी कई महत्वपूर्ण काम करवा कर माई ने अब बद्रीनाथ की शरण ली। कुछ बरस तक बद्रीनाथ धाम में रहने के बाद उनका अपने गृह नगर पौड़ी जिले में पदार्पण हुआ। एक दिन की घटना है जब माई ने देखा कि शराब की दुकान की सीढ़ियों पर बैठे टिंचरी नशे में झूमते एक शराबी ने महिलाओं का उधर से गुजरना मुहाल कर रखा है। उन्हें गंदी नज़रों से घूरता वह शराबी उन पर अश्लील फब्तियां भी कस रहा था। माई का ख़ून खौल उठा। हालांकि थोड़ी देर बाद वह व्यक्ति सीढ़ियों से गिर गया और लहूलुहान हो गया। मगर, यह सज़ा तो समाधान नहीं टिंचरी पीकर महिलाओं पर ग़लत नज़र डालने की। वह सीधे गईं कंडोलिया स्थित डिप्टी कमिश्नर के ऑफिस। कमिश्नर साहब उस वक़्त कुछ लिख रहे थे। माई ने उनका हाथ पकड़ लिया और कहा- तू यहां बैठा हुआ है? जरा देख तेरे राज में क्या हो रहा है? कमिश्नर साहब को लेकर वह घटनास्थल पर पहुंची। शराब की दुकान बंद करवाने की मांग पर कमिश्नर साहब को कुछ सूझा नहीं। वह तुरंत वहां से चले गए।
माई बहुत आक्रोशित हो गईं। वह कहीं से मिट्टी के तेल का एक जरकिन उठा कर लाईं और हाथ में माचिस की डिबिया ले दुकान का दरवाजा तोड़कर सीधे अंदर घुस गईं। वहां बैठे शराबी माई के यह तेवर देखकर घबरा गए और सारे के सारे भाग खड़े हुए। माई ने मिट्टी का तेल छिड़ककर दुकान में आग लगा दी। अब माई दोबारा कमिश्नर के पास पहुंची उन्होंने कहा- ‘ले अब भेज दे मुझे जेल’। सरकारी शराब की दुकान को आग लगाना कानूनन जुर्म तो था ही सो कमिश्नर ने उन्हें लैंसडाउन भिजवा दिया। माई को जेल भेज दिए जाने की घटना जंगल की आग की तरह सब जगह फैल गई। टिंचरी पिलाने वाली दुकानों के विरोध में उत्तराखंड की सारी महिलाएं एकजुट हो गईं। घास-पात-लकड़ी का दैनिक काम धाम छोड़कर महिलाएं सड़कों पर उतर आई थीं। महिलाओं ने शराबी पुरुषों को बिच्छूघास और डंडे से पीटकर उन्हें बंधक बनाकर रखना शुरू कर दिया। सरकार को शराब की दुकानों पर ताले जड़ने पड़े। इस तरह इच्छा गिरी माई को नया नाम मिल चुका था ‘टिंचरी माई’ । आज इस गांव तो कल उस गांव जा-जाकर माई ने पहाड़ में शराब के ख़िलाफ़ एक मजबूत माहौल तैयार कर दिया।
आंदोलन को जबरदस्त सफलता मिली। टिंचरी माई ने देखा था कि 1940 तक पहाड़ में शराबी न के बराबर थे। लेकिन, साठ का दशक आते-आते सरकारी शराब की दुकानों ने नशा घर-घर तक पहुंचा दिया। पहाड़ के पुरुष पूरी तरह बर्बाद हो रहे थे। टिंचरी माई के इस शराब विरोधी आंदोलन के बाद इस पर लगाम लगी। अपने शेष जीवन में माई ने इस आंदोलन को पूरी तरह जारी रखा। उम्र भर सामाजिक मुद्दों से सरोकार रखते हुए ही 17 जून उन्नीस सौ तिरानवे में माई का देहावसान हो गया।
आज की तारीख़ का माई से कोई खास संबंध नहीं, तब उनका प्रसंग छेड़ने का आशय सिर्फ़ इतना भर है कि उन्हीं की समकालीन एक अन्य समाजसेवी महिला गंगूबाई काठियावाड़ी पर फिल्म बन कर तैयार है। फिल्म के भव्य ट्रेलर देख कर लग रहा है कि अपनी पिछली अन्य फिल्मों की तरह ही निर्देशक संजय लीला भंसाली ने इसकी वास्तविक कहानी में भी ज़रूर छेड़छाड़ की होगी। जबकि, कहानी इतनी सी है कि अपने जीवन काल में गंगूबाई की एक बार नेहरु जी से मुलाकात हुई थी, जिसमें उन्होंने मुंबई के कमाठीपुरा इलाके की चार हजार वेश्याओं की झोपड़ियां न उजाड़ने के लिए उनसे प्रार्थना की थी। आप पढ़ लिखकर किसी की पत्नी भी तो हो सकती थीं, फिर इसी धंधे में पड़े रहना क्या जरूरी है? नेहरू जी के इस प्रश्न के जवाब में उन्होंने नेहरू जी पर ही सवाल दाग दिया था कि ‘क्या आप मुझे अपनी पत्नी बनाना पसंद करेंगे’?
नेहरू जी के ना कहने पर गंगूबाई ने अपनी स्थिति का एहसास उन्हें कराया कि जब आप जैसा व्यक्ति हम जैसी किसी महिला को अपनाने में हिचक रखता है तो फिर बाकी समाज भी कहां इतना सुलझा हुआ है जो हमें दोबारा इज़्ज़त की जिंदगी बसर करने का मौका दे दे, इसलिए हम जहां बसे हैं हमें वहीं रहने दिया जाए। नेहरू जी के आश्वासन के बाद उन्होंने वहां की महिलाओं की बदहाल स्थिति को ठीक करने और उनके बच्चों की स्कूली शिक्षा के लिए बहुत काम किया। उन पर आज फिल्म बनकर तैयार है। लेकिन, हमारे पहाड़ में समाज सेवा की असाधारण मिसाल टिंचरी माई जैसी किसी महिला पर फिल्म बनाने का खयाल अब तक किसी को नहीं आया। फिल्म तो दूर की बात है, समाज को इतना कुछ देने के एवज में कोई हो, जिन्हें उनका असली नाम तक पता हो।
यह शायद हमारे पहाड़ का दुर्भाग्य ही है कि फिल्मकारों को शूटिंग के लिए यहां अच्छी-अच्छी लोकेशंस तो मिल जाती हैं। लेकिन, सशक्त चरित्रों को पर्दे पर लाने के लिए उन्हें इनकी कहानी में फिल्मी मसाले का अभाव दिखता है। राज कपूर जैसे महान शोमैन भी ‘राम तेरी गंगा मैली’ की शूटिंग के सिलसिले में गंगोत्री, यमुनोत्री, ऋषिकेश, हरिद्वार समेत गढ़वाल के कई क्षेत्रों का भ्रमण कर चुके। लेकिन, फिल्म में ग्लैमर का तड़का लगाने की फ़िराक से सफेद साड़ी में मंदाकिनी का स्नान दृश्य दिखाकर वो भी पहाड़ की औरतों की छवि को ख़राब करने के प्रयास तक ही सीमित रह गए। टिंचरी माई जैसी उजली शख्सियतों पर भी कोई सार्थक फिल्म बने तो समझा जाना चाहिए कि सिनेमा वास्तव में समाज का आईना है।