प्रतिभा की कलम से.. न सर पर दुपट्टा न पांव में जूती और दौड़ पड़ी मल्लिका-ए-तरन्नुम नूरजहां
लग जा गले…
—————————
बात 1955-56 की है जब पाकिस्तान में मोहम्मद अली जिन्ना चैरिटी शो किया जा रहा था। आयोजकों ने शिरकत करने की सबसे पहली सिफारिश मल्लिका-ए-तरन्नुम नूरजहां से की। वो तैयार हो गईं। लेकिन, ऐन वक्त पर उन्हें पता चला कि नग्मों की फ़ेहरिस्त में ‘मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग’ नज़्म तो शामिल है ही नहीं। उन्होंने पूछा-ऐसा कैसे?
आयोजकों ने दलील दी कि ‘मोहतरमा यह फै़ज़ साहब की नज्म़ है और आपको तो पता ही है कि हुकूमत से ख़िलाफत के चलते इस वक्त वह जेल में बंद हैं। इसलिए ये नज़्म तो आप यहां से नहीं गा सकतीं’।
नूरजहां ने कहा-यह तो मेरी पसंदीदा नज़्म है अगर ये न गाने दी जाएगी तो फिर मैं कुछ और भी क्यों गाऊं?
‘पैसे तो मैंने लिए नहीं है आपसे, इसलिए मैं घर चली जाती हूं’।
अब क्या हो? नूरजहां के नाम पर तो छह लाख की टिकटें पहले ही बिक चुकी थीं। हारकर आयोजकों को मानना पड़ा कि ये तो किसी और ही मिट्टी की बनी हुई हैं, इसलिए जो ये सुनाना चाहती हैं, सुनाने दिया जाए।
तब मोहतरमा ने ‘मुझसे पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग’ गाना शुरू किया। इस नज़्म की धुन नूरजहां ने खुद तैयार की थी। पाकिस्तान की अवाम ने पहली बार यह नज़्म सुनी। खूब वाहवाही मिली। सुनने वालों ने खड़े होकर मोहतरमा की हौसला आफजाई की।
इधर, जेल में फै़ज़ साहब के कानों तक भी अपनी नज़्म और मैडम नूरजहां वाले किस्से के जलवे पहुंच गए। लगभग तीन दिन बाद ही उनकी रिहाई भी थी। रिहा होकर अपने घर जाने की बजाय उन्होंने सीधे नूरजहां के घर की राह ली।
मल्लिका-ए-तरन्नुम कहती हैं कि रात के दो बजे रहे थे, मैं सोने ही जा रही थी कि जब दरबान ने बताया ‘आपसे मिलने कोई फै़ज़ साहब आए हैं’। मैंने लापरवाही से कहा- कौन फ़ैज़?
तो उसने कहा- ‘फ़ैज़ अहमद फ़ैज़’।
ओहो! फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ साहब?
‘फिर तो न सर पर दुपट्टा और न पांव में जूती। मैं सीधे भागी बाहर की तरफ। दरवाजा खोला तो सामने एक शख़्स खड़े थे। मैं फ़ैज़ साहब के कलाम की बहुत बड़ी आशिक थी मगर ये जुर्रत तो मैं नहीं कर सकती थी न कि किसी को पहली मर्तबा देखो और उसके गले लग जाओ। लेकिन, फ़ैज़ साहब ने मुझे गले लगा लिया। मेरे पास भी कहां अल्फाज़ थे अपनी खुशी को बयान करने के लिए! सो मैं भी उनके गले लग गई’।
मैंने उन्हें अंदर बुलाया। उन्होंने कहा कि अभी तो मैं आपको सिर्फ़ शुक्रिया कहने आया हूं। हुकूमत के आला अफसरानों की नापसंदगी के बावजूद भी मेरी नज़्म गाने की हिम्मत अगर आपने दिखाई है तो वाकई आप बहुत ऊंची हस्ती हैं।
आवाज़ तो माशाअल्लाह खूबसूरत थी ही। चेहरे की खूबसूरती के दीवानों में भी कोई कमी न आए, इसके लिए मैडम नूजहां का उसूल था कि बिना मेकअप वह किसी भी मुलाकाती से नहीं मिलती थीं। लेकिन, यह पहला मौका था जब चेहरे पर बिना किसी लीपापोती के ही वह दौड़ पड़ीं मेहमान से मिलने। हो भी क्यों न! सामने वाला शख़्स फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ जो था।
उसके बाद अपने एक से बढ़कर एक बेहतरीन कलामों की बदौलत फ़ैज़ साहब जिस तरह उर्दू अदब का सबसे बड़ा नाम हुए जा रहे थे, उसी तरह नूरजहां भी पाकिस्तान में गायकी का सबसे बुलंद सितारा बनकर चमक रही थी। नूरजहां के दिल में ये ख़्वाहिश हमेशा रही कि वो फै़ज़ साहब से बार-बार मिले, लेकिन फिर अपनी दूसरी शादी, बच्चे और करियर में वो इतना व्यस्त हो गईं कि जितना चाहती थी उतना वह मिल न सकीं।
और इस तरह ‘अब मिलूंगी तब मिलूंगी’ सोचते-सोचते ही एक दिन उन्हें खबर मिली कि आज फ़ैज़ साहब दुनिया से रुखसत हो गए। ‘यह बहुत बड़ी भूल हुई हमसे। चाहकर भी क्यों न मैं बार-बार मिली उनसे’! उनके कलाम पढ़कर रोती हुई नूरजहां कहती हैं-
‘याद-ए-माजी़ अजा़ब है या-रब
छीन ले मुझसे हाफ़िजा़ मेरा’
लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है? जिस शिद्दत से नूरजहां को फ़ैज़ साहब से अपनी पहली मुलाकात याद आती थी, फ़ैज़ साहब ने भी इस मुलाकात को उतनी ही इज्ज़त बख्शी। ‘मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग’ नज़्म की फरमाइश उनसे हर मुशायरे में जरूर होती थी, लेकिन, वह इनकार कर देते कि इस नज्म़ पर सिर्फ़ और सिर्फ़ मलिका-ए-तरन्नुम नूरजहां का हक है। यह अब आप उन्हीं की आवाज में सुनिए।
फ़ैज़ साहब और नूरजहां के बीच कोई रुमानी ताल्लुकात तो नहीं थे। लेकिन, एक इंतहापसंद मुल्क में किसी मर्द का एक जवां नाजनीन से गले मिलने का ये खूबसूरत वाकिया उनके चाहने वालों के लिए किसी खूबसूरत नज्म़ या ग़ज़ल से कम तो नहीं।
प्रतिभा की कलम से