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प्रतिभा की कलम से… मैंने कभी पचास रुपए एक साथ नहीं देखे तो दो सौ पैंतीस रुपये कहां से लाऊं

“दो बीघा जमीन”

“मैंने जिंदगी में कभी पचास रुपए एक साथ नहीं देखे तो दो सौ पैंतीस रुपये कहां से लाऊं”?
रवींद्रनाथ टैगोर की कविता ‘दुई बीघा जोमी’ से प्रेरित “दो बीघा जमीन” फिल्म में शंभू महतो नामक किसान बने बलराज साहनी की जुबान से निकला यह संवाद आज भी सीधा दर्शकों के दिल में उतरता है। फिल्म 1953 में रिलीज हुई थी। फिल्म के कलाकार थे निरूपा राय, बलराज साहनी और मास्टर रतन। इतने सीधे-साधे चेहरों के बावजूद फिल्म ने राष्ट्रीय ही नहीं अंतरराष्ट्रीय सिनेमा पर भी जबरदस्त प्रभाव छोड़ा। हालांकि अतिथि भूमिका में मीना कुमारी भी थीं, लेकिन दर्शक खींचने के उद्देश्य मात्र से उन्हें फिल्म में शामिल नहीं किया गया था, बल्कि फिल्म की कुछ झलकियां देखने के बाद मीना जी ने इस फिल्म में खुद ही अपनी उपस्थिति की दिली ख़्वाहिश जताई थी।
चाहे वह साहित्य हो या कि सिनेमा हो, कला को अभिव्यक्त करने के नजरिए में विविधता और बारीकी हो तो सादगी के बावजूद भी कृति अपने क्षेत्र में मील का पत्थर हो जाती है। प्रेमचंद की “पूस की रात” के हल्कू की तरह ही अपनी जमीन बचाने को फिल्म का नायक शंभू महतो क्या नहीं करता? कोलकाता चला जाता है यह सुनकर कि वहां हवा में रुपए उड़ते हैं। जितना चाहो बटोर लो। नहीं! नहीं! वह किसान है, जमीन को मां कहने वाला उसे बेच नहीं सकता। हवा में उड़ते यह रुपए उसे चाहिए अपनी जमीन छुड़ाने के लिए। दो साल के सूखे के बाद बारिश हुई है। उस बारिश में जमकर भीग रहा शंभू अपनी खुशी पत्नी से बांटने के लिए उसे भी जबरदस्ती घसीट लेता है बारिश वाले कीचड़ में।
क्यों ना हो ऐसा उन्माद! बारिश के बाद उसे फसल से बहुत उम्मीदें हैं। इन उम्मीदों में बसा है उसका जीवन संगीत, जब पगडंडी से गुजरती हुई उसकी पत्नी पारो चांदी की पायल पहनकर छन-छन करती हुई खेत पर उसके लिए खाना लेकर आएगी।
आजादी के बाद का दौर है। जमींदारी खत्म होने का वक्त आ गया है। पूंजीपतियों को अपना पैसा उद्योग धंधों में लगाकर बढ़ाना है। इसके लिए उनकी ललचाई नजर अब गांव की जमीनों पर पड़ गई है। शंभू महतो के गांव में अधिकांश जमीन जमींदार की है, लेकिन बीच की दो बीघा जमीन पर शंभू महतो का घर और खेती है। यही बीच की दो बीघा जमीन वहां लगने वाली मिल के रास्ते में सबसे बड़ा अड़ंगा है। जमींदार के लाख समझाने पर भी शंभू अपनी जमीन छोड़ने को राजी नहीं होता। तब खेती के लिए बीज वगैरह और अकाल के दिनों में उसके पिता द्वारा बेगार किए जाने के बावजूद भी पांच मन चावल के नाम पर जमींदार द्वारा हिसाब बना दिया जाता है, पैंसठ रुपए की जगह दो सौ पैंतीस रुपए का। मामला अदालत में जाता है तो अदालत पैसा चुकाने के लिए मोहलत देती है तीन महीने की। इस अवधि में यदि ऋण न चुकाया गया तो जमीन जमींदार की हो जाएगी। घर के सब लोगों को भी रेहन पर रख दे तब भी गांव में इतना पैसा मिलना मुश्किल है। इसलिए मेहनत-मजदूरी करके पैसा कमाने कोलकाता आ गया है शंभू। यहां आकर वह जान गया है कि शहर में रुपए नहीं बल्कि मजबूरियों की धज्जियां हवा में उड़ती हैं। वहां से कुछ कमा कर तो वह ला ना सका, हां! बेटा जरूर जेबकतरा बन गया है। अपने खून-पसीने की कमाई से जो साठ रुपए पारो गांव से लेकर आई थी, वह भी टैक्सी से टक्कर लगने के कारण बहुत ज्यादा खून बह जाने पर उसके लिए खून और दवाई का इंतजाम करने में खर्च हो जाते हैं। ऋण चुकाने की समय सीमा खत्म हो जाने पर इधर शंभू की पुश्तैनी जमीन पर जमींदार ने कब्जा कर लिया है। उसका बेघर पिता पागल हो गया है। ‘शहर किस बला का नाम है’ से भली भांति परिचित होने के बाद अब शंभू, पारो और उनका बेटा गांव लौटे हैं तीन महीने बाद। सामने मिल तैयार हो गई है। मिल से उठते हुए धुंए पर पारो को याद है कि कभी वहां पर उसकी रसोई हुआ करती थी। बच्चे को भी याद है जहां उसका घर था। शंभू कैसे भूल सकता है कि यह उसके खेत की मिट्टी है। उसी मिट्टी को माथे से लगाकर वापसी की राह लेता है कि मिल का चौकीदार पूछता है-अबे! क्या चुरा कर ले जा रहा है? ‘कुछ नहीं’ के सबूत के तौर पर मुट्ठी भर मिट्टी को वापस जमीन पर गिराता हुआ शंभू महतो! गरीब शंभू की मार्मिक दुर्दशा देखकर किसका कलेजा ना मुंह को आ जाए!आजादी के इतने वर्षों बाद भी किसान शायद सबके लिए दो कौड़ी का ही है, लेकिन उनकी जमीन हमेशा सोने के अंडे देने वाली मुर्गी रही है। ..इसे खरीदने-बेचने की कीमत लगाने को सब तैयार हैं।
आज भी बहुत कम लोग जानते होंगे कि बलराज साहनी कभी गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर के शांति निकेतन में इंग्लिश के अध्यापक थे, लेकिन बिमल रॉय की “दो बीघा जमीन” के शंभू महतो ने उन्हें देश-विदेश में प्रसिद्ध कर दिया कि यह बलराज साहनी हैं, जिन्होंने इस किरदार में जान फूंकने के लिए कोलकाता की सड़कों पर पंद्रह दिन हाथ रिक्शा खींचा था। पैरों में सच के छाले उभर आना अभिनय के प्रति उनकी निष्ठा को सलाम करता है।
‘दो बीघा जमीन’ ने अभिनय के अलावा भी एक और प्रतिभा का परिचय सिने जगत से करवाया। वह थे इस फिल्म के संगीतकार सलिल चौधरी। सलिल चौधरी के संगीत के बिना “दो बीघा जमीन” के लिए लोगों के दिलों में उपजी नमी शायद अधूरी रहती। ‘हरियाला सावन ढोल बजाता आया’ में सूखी जमीन पर बारिश की बूंदे पड़ने का हिलोरें मारता उल्लास। ‘आ जा री आ निंदिया तू आ’ जैसे कर्णप्रिय लोरी और अपनी जमीन छोड़कर परदेस जाने को विवश हुए विदेशिया के दर्द को बयान करता मन्ना डे की आवाज में “मौसम बीता जाए” गीत!
“दो बीघा जमीन” से जुड़ा सब कुछ याद रखने लायक है। यही शायद ऐसी फिल्म है जिसने “मदर इंडिया” से भी पहले अंतरराष्ट्रीय सिनेमा में पुरस्कृत होने का गौरव प्राप्त किया था। हिंदी सिनेमा के महान फिल्मकार बिमल रॉय की पुण्यतिथि पर आज यह फिल्म संसद में दिखाई जानी चाहिए। सत्तर दिन से ठंड में जानलेवा मुसीबतें झेल रहे आज के शंभू महतों की हकीकत पर भी पसीज जाएं माननीयों के दिल तो भीगी आंखों से शायद बॉर्डर पर खड़े किसानों के प्रति नजर ज्यादा साफ हो सके।

प्रतिभा की कलम से

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