राह सूनी, डगर पर मेला.. क्यों रह गया पथिक अकेला..

डॉ अलका अरोड़ा
प्रोफेसर, देहरादून
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रुक ना जाना – हे पथिक
राह सूनी, डगर पर मेला
क्यों रह गया पथिक अकेला
रुणिम प्रभात की पावन बेला
भोर के संगी, बिछड़ गया रेला
ज्यौं ज्यौं जला आग का गोला
तिमिर ओट में छिप गया अकेला
भाव सृष्टि के बदल रहे प्रतिपल
स्नेह विलुप्त हो रहे अविरल
सड़क किनारे चमकी रौनक
जुड़ा कारवां कर्मशील हुए सब
भागमभाग भरा चहुँ दिशी यह रण
मन सुस्ताया पुनः लिये प्रफुल्लित प्रण
मैं वाला अहंकार जा बैठा कौना पकड़
वासना से साधना का प्रारंभ हुआ सफर
नीलगगन भी देखो धूमिल हुआ अवसान से
रक्तिम हुआ है रवि के अरुणिम प्रादुर्भाव से
चंचल चारू से चंद्रमा ने, दस्तक दी शान से
खिली चांदनी बिखरी, शीतल सी मुस्कान से
छटपट करती तपिश में, तरुणाई लहराई है
आगे बढ़कर प्रकृति ने, छठा नई बिखराई है
मेघों के गर्जन अनुराग वही पुराने बता रहे
साँझ ढले कुछ गीत वही अनमने से सुना रहे
हर पल जीवन का एक नई चुनौती बना
चेतन देखो अवचेतन में धीमे धीमे बदल रहा
देख रही हूं खड़ी तीर पर साथी छूटे धीरे-धीरे
पथिक राह बढ़ चलो इस नदिया के तीरे-तीरे
अनजान डगर पर विचलित साथी मिलकर
प्रतिक्षण कुंठित होकर मार्ग तेरा भटकायेंगें
कहीं रुक ना जाना सजग पथिक तुम
चलो संभल कर अडिग डगर पर
एक सूर्य है एक चंद्रमा एक ही धरती माता
आह.. स्वर्णिम बेला में हर्षित पथिक तू गाता
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सर्वाधिकार सुरक्षित।
प्रकाशित…..14/08/2020
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