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गुलाब की गीली पंखुड़ियां और मुहब्बत में भीगे दिल…अहा सावन क्यूं बीते तुझ बिन

इंसान बुत बना खड़ा है अपनी पाबंदियों की हद में और कुदरत जैसे इंसान बन गई हो इन दिनों। बारिशों की चाहत जमकर बरस रही है कुदरत पर। गुलाब की गीली पंखुड़ियां, जैसे-मोहब्बत में भीगे हुए दिल। गुलमोहर, अमलतास, चंपा, चमेली, मोगरा, हरसिंगार पर भी दिन आए हैं बहार के। गम नहीं जरा भी, कोई भीगे या न भीगे उनके साथ, खुद में मगन हैं नाचती, थिरकतीं एक-दूसरे पर पानी उछालती हुईं पत्तियां।
इस भीगे मौसम का सालभर इंतजार करते हैं लोग। सबके लिए कुछ न कुछ है इसमें। बच्चों के लिए कागज की नाव, बड़े-बुजुर्गों के लिए पकोड़ौं के साथ यादों की चुस्कियों वाली चाय, नव और प्रौढ़ उम्र के बीच झूलती स्त्रियों के लिए आंगन में झाड़ू लगाने के बहाने बारिश में जरा-जरा सा भीग कर मायके की यादों में मन भिगोने के दिन। मगर अबके सावन की बूंदों की शबनम कम और शिकायतों का समंदर ज्यादा है लबों पर। कजरी गाने और झूले पर झूलने वाले दिनों की याद घुलकर रह गई है हवा में बस। कहीं से भी बुलावा आए तो आए कैसे? नवयुवकों के लिए किसी भीगी लड़की को छाता पेश करने का मौसम था यह, मगर स्कूल, कॉलेज तो बंद। ऑफिस खुले हैं जरूर, मगर अमोल पालेकर झिझक रहे हैं किसी अनजान विद्या सिन्हा को लिफ्ट देने में। मेघा छाए आधी रात, बैरन बन गई निंदिया वाले दिनों में दिल गिले शि़कवे कर रहा है ….
‘गम की बारिश ने भी तेरे नक़्श को धोया नहीं
तूने मुझे खो दिया, मैंने तुझे खोया नहीं’।
चलिए ! जो ना मिल सके वो बेवफा ही सही, मगर फिर भी इनकी खिड़की से उनकी खिड़की तक जो पहुंचती हैं, उस राह पर टूटती रहें ये बूंदों की लड़ियां। बाहर बारिश में भीगती वो कली भी तो यही कह रही है- गुजर जाए भले ही ये सावन यूं ही मगर फिर भी यादों के मौसम के सिर पर उम्मीदों की छतरी टिकाए हुए रखना हमेशा-
‘दिल में छपकर भी खुशबुएं देंगी
हर तमन्ना गुलाब है प्यारे’

प्रतिभा की कलम से

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