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वरिष्ठ कवि जीके पिपिल की एक ग़ज़ल…. हम चाँद होकर भी अपनी चाँदनी को तरसते रहे

जीके पिपिल
देहरादून, उत्तराखंड

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गज़ल

हम चाँद होकर भी अपनी चाँदनी को तरसते रहे
ता उम्र उजालों में रहे और रौशनी को तरसते रहे।

अब इससे बढ़कर भी बड़ी बदनसीबी क्या होगी
आज तक जिन्दा हैं और जिन्दगी को तरसते रहे।

जिसकी नज़रों में हम किसी ख़ुदा से कम ना रहे
अफ़सोश कि हम उस की बन्दग़ी को तरसते रहे।

अपने सामान बाँधे बैठे किसी मुसाफ़िर की तरह
हमें परवाना तो मिला पर रवानगी को तरसते रहे।

टूटी छत फटा लिबास और कुछ निवाले ही मिले
माल इतना पाकर भी हम सादगी को तरसते रहे।

हम पौधे जिसमे लगे थे वो उनका ही आँगन रहा
जिसमें बहारें तो आईं हम ताज़गी को तरसते रहे।

हम भी कर सकते थे जलकर मदद राहगीरों की
हम चिराग़ थे मगर राहों में तीरगी को तरसते रहे।

नदी चाहती थी कि हम उसे घूंट घूंट करके पी लें
हम उसे पी सकते थे पर तशनगी को तरसते रहे।

हमें भी मीठे और अधिक स्वादिष्ट बना सकते थे
हम सिके गुलाबजामुन थे चाशनी को तरसते रहे।

कैसी होती हैं खुशियाँ कैसा होता है उनका स्वाद
हम उन्हें चखने को उनकी बानगी को तरसते रहे।।

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