श्रद्धांजलि: दिलीप कुमार बेचा करते थे सैंडविच और तकिए, देविका रानी ने बना दिया अभिनेता
शब्द रथ विशेष
फिल्म अभिनेता दिलीप कुमार अब हमारे बीच नहीं हैं। गत सात जुलाई को उनका निधन हो गया। फिल्मी दुनिया में कदम रखने से पहले दिलीप कुमार यानी युसुफ खान बहुत ही सामान्य व्यक्ति की तरह जीवन यापन करते थे। पिता का फल का कारोबार था। तो युसुफ कैंटीन में सैंडविच बेचा करते थे। कैंटीन से नौकरी छुट्टी तो उन्होंने कुछ दिन तकिए बेचने का काम किया। किस्मत उन्हें फिल्मी दुनिया में ले आई और देविका रानी ने युसुफ खान को बना दिया सुपर स्टार दिलीप कुमार। आइए जानते है दिलीप कुमार के जीवन से जुड़ी कुछ यादगार बातें।
फिल्म अभिनेता दिलीप कुमार के फिल्मी पर्दे पर जीवंत अभिनय ने उन्हें सुपर स्टार बना दिया। बाद के दिनों में वह ट्रेजेडी किंग के नाम में मशहूर हुए। वहीं, सच्चाई यह भी है कि उनकी न तो फ़िल्मों में काम करने की दिलचस्पी थी और न ही उन्होंने कभी यह सोचा था कि दुनिया में अपने नाम युसुफ से नहीं, बल्कि किसी दूसरे नाम दुनिया में याद करेगी।
पेशावर में हुआ दिलीप कुमार का जन्म
दिलीप कुमार का जन्म पेशावर (अब पाकिस्तान में) में फलों के कारोबारी मोहम्मद सरवर ख़ान के बेटे यूसुफ़ सरवर ख़ान रूप में हुआ। सरवर खान बाद में मुंबई आ गए। वहां भी फलों का कारोबार शुरू किया। दिलीप कुमार भी शुरूआती दिनों में पारिवारिक कारोबार से जुड़े रहे। एक दिन किसी बात पर पिता से कहासुनी हुई तो दिलीप कुमार पुणे चले गए। अंग्रेजी जानने के चलते उन्हें पुणे के ब्रिटिश आर्मी के कैंटीन में असिस्टेंट की नौकरी मिल गई। उन्होंने वहां अपना सैंडविच काउंटर खोला, जो अंग्रेज सैनिकों के बीच काफ़ी लोकप्रिय हो गया था। कैंटीन में एक दिन आयोजन में भारत की आज़ादी की लड़ाई का समर्थन करने के कारण वह गिरफ़्तार हो गए और उनकी नौकरी चली गई। यूसुफ़ ख़ान फिर से बंबई (अब मुंबई) लौट आए और पिता के काम में हाथ बटाने लगे। उन्होंने तकिए बेचने का काम भी शुरू किया जो सफल नहीं हुआ।
दिलीप कुमार के पिता ने उन्हें नैनीताल जाकर सेब का बगीचा ख़रीदने का काम सौंपा। वह महज एक रुपये के अग्रिम भुगतान पर समझौता कर आए। हालांकि, इसमें बगीचे के मालिक की भूमिका ज़्यादा थी। लेकिन, उन्हें को पिता की शाबाशी ख़ूब मिली।
डॉ मसानी ने दिलीप को मिलवाया देविका रानी से
ऐसे ही कारोबारी दिनों में आमदनी बढ़ाने के लिए ब्रिटिश आर्मी कैंट में लकड़ी से बनी कॉट सप्लाई करने का काम पाने के लिए यूसुफ़ ख़ान को एक दिन दादर जाना था। वे चर्चगेट स्टेशन पर लोकल ट्रेन का इंतज़ार कर रहे थे, तभी उन्हें वहां जान पहचान वाले साइकोलॉजिस्ट डॉक्टर मसानी मिल गए। डॉक्टर मसानी ‘बॉम्बे टॉकीज’ की मालकिन देविका रानी से मिलने जा रहे थे। उन्होंने यूसुफ़ ख़ान से कहा कि चलो क्या पता, तुम्हें वहां कोई काम मिल जाए। पहले तो यूसुफ़ ख़ान ने मना कर दिया। लेकिन, किसी मूवी स्टुडियो में पहली बार जाने के आकर्षण के चलते वह तैयार हो गए।
दिलीप कुमार से देविका रानी ने पूछा, एक्टर बनोगे
दिलीप कुमार ने अपनी आत्मकथा ‘द सबस्टैंस एंड द शैडो’ में लिखा है कि जब वे लोग उनके केबिन में पहुंचे तो उन्हें देविका रानी गरिमामयी महिला लगीं। डॉक्टर मसानी ने दिलीप कुमार का परिचय कराते हुए देविका रानी से उनके लिए काम की बात की। देविका रानी ने दिलीप कुमार से पूछा कि क्या उन्हें उर्दू आती है? दिलीप कुमार हां में जवाब देते उससे पहले ही डॉक्टर मसानी देविका रानी को पेशावर से मुंबई पहुंचे उनके परिवार और फलों के कारोबार के बारे में बताने लगे।
इसके बाद देविका रानी ने दिलीप कुमार से पूछा कि क्या तुम एक्टर बनोगे? इस सवाल के साथ ही देविका रानी ने उन्हें 1250 रुपये मासिक की नौकरी ऑफ़र कर दी। डॉक्टर मसानी ने दिलीप कुमार को इसे स्वीकार कर लेने का इशारा किया। लेकिन, दिलीप कुमार ने देविका रानी को ऑफ़र के लिए धन्यवाद देते हुए कहा कि उनके पास न तो काम करने का अनुभव है और न ही उन्हें सिनेमा की समझ है।
तब देविका रानी ने दिलीप कुमार से पूछा था कि तुम फलों के कारोबार के बारे में कितना जानते हो। दिलीप कुमार का जवाब था कि जी, मैं अभी सीख रहा हूं। देविका रानी ने तब दिलीप कुमार को कहा कि जब तुम फलों के कारोबार और फलों की खेती के बारे में सीख रहे हो तो फ़िल्म मेकिंग और अभिनय भी सीख लोगे। देविका ने उन्हें कहा कि मुझे एक युवा, गुड लुकिंग और पढ़े लिखे एक्टर की ज़रूरत है। मुझे तुममें एक अच्छा एक्टर बनने की योग्यता दिख रही है।
देविका रानी ने दी दिलीप कुमार को 1250 रुपये मासिक की नौकरी
वर्ष 1943 में 1250 रुपये की रकम कितनी बड़ी होती थी, इसका अंदाज़ा इससे भी लगाया जा सकता है कि दिलीप कुमार को यह सालाना ऑफ़र लगा था। उन्होंने डॉ मसानी से इसे दोबारा कंफ़र्म करने को कहा और जब मसानी ने उन्हें देविका रानी से कंफ़र्म करके बताया कि यह 1250 रुपये मासिक ही है, तब जाकर दिलीप कुमार को यक़ीन हुआ। उन्होंने ऑफ़र को स्वीकार किया और बॉम्बे टॉकीज़ के अभिनेता बन गए।
देविका रानी ने युसुफ को बनाया दिलीप कुमार
दिलीप कुमार बॉम्बे टॉकीज़ में शशिधर मुखर्जी व अशोक कुमार के अलावा दूसरे नामचीन लोगों के अभिनय की बारीकियां सीखने लगे इसके लिए उन्हें प्रतिदिन दस बजे सुबह से छह बजे तक स्टुडियो में होना होता था। एक सुबह वह स्टुडियो पहुंचे तो उन्हें संदेश मिला कि देविका रानी ने उन्हें केबिन में बुलाया है।देविका रानी ने अपनी शानदार अंग्रेजी में कहा कि यूसुफ़ मैं तुम्हें जल्द से जल्द एक्टर के तौर पर लॉन्च करना चाहती हूं। मेरा विचार है कि तुम्हारा एक स्क्रीन नेम हो। ऐसा नाम जिससे दुनिया तुम्हें जानेगी और ऑडियंस तुम्हारी रोमांटिक इमेज को उससे जोड़कर देखेगी। मेरे ख़याल से दिलीप कुमार अच्छा नाम है। जब मैं तुम्हारे नाम के बारे में सोच रही थी तो ये नाम अचानक मेरे दिमाग़ में आया, तुम्हें यह नाम कैसा लग रहा है?”
नाम बदलने पर दिलीप कुमार की हुई बोलती बंद
दिलीप कुमार नाम रखने का प्रस्ताव सुनकर युसुफ (दिलीप कुमार) की बोलती बंद हो गई थी। वह नई पहचान के लिए तैयार नहीं थे। उन्होंने देविका रानी को कहा कि ये नाम तो बहुत अच्छा है। लेकिन, क्या ऐसा करना वाक़ई ज़रूरी है? देविका रानी ने मुस्कुराते हुए दिलीप कुमार से कहा कि ऐसा करना बुद्धिमानी भरा होगा। मैं काफ़ी सोच विचारकर इस नतीजे पर पहुंची हूं कि तुम्हारा स्क्रीन नेम होना चाहिए। इस तरह युसुफ खान बन गए दिलीप कुमार। दिलीप कुमार के अपनी आत्मकथा में लिखा कि ये भारत की आज़ादी से पहले का दौर था। उस वक्त हिंदू व मुस्लिम को लेकर समाज में बहुत कटुता नहीं थी। लेकिन, कुछ साल के अंदर ही भारत-पाकिस्तान के रूप में हिंदू-मुसलमान के नाम पर बंटवारा हो गया।
देविका रानी को थी बाजार की समझ
देविका रानी को बाज़ार की समझ थी, उन्हें मालूम था कि किसी ब्रैंड के लिए दोनों समाज के लोगों की बीच स्वीकार्यता की स्थिति ही आदर्श स्थिति होगी हालांकि ऐसा नहीं था केवल मुस्लिम कलाकारों को अपना नाम बदलना पड़ा रहा था और स्क्रीन नेम रखना पड़ रहा था। दिलीप कुमार से पहले देविका रानी अपने पति हिमांशु राय के साथ मिलकर कुमुदलाल गांगुली को 1936 में ‘अछूत कन्या’ फ़िल्म से अशोक कुमार के तौर पर स्थापित कर चुकी थीं।
पहली फिल्म थी ज्वार भाटा, जो नहीं चली
अमिय चक्रवर्ती के निर्देशन में ‘ज्वार भाटा’ की शूटिंग शुरू हो गई। वर्ष 1944 में प्रदर्शित इस फ़िल्म के साथ ही भारतीय फिल्म इंडस्ट्री को दिलीप कुमार मिले। पहली फ़िल्म नहीं चली।उस वक्त हिंदी फ़िल्मों पर नज़र रखने वाली प्रमुख पत्रिका ‘फ़िल्म इंडिया’ के संपादक बाबूराव पटेल ने लिखा ने दिलीप कुमार के बारे में लिखा कि फ़िल्म में लगता है किसी मरियल और भूखे दिखने वाले शख़्स को हीरो बना दिया गया है। लेकिन, लाहौर से प्रकाशित होने वाली पत्रिका सिने हेराल्ड में पत्रिका के संपादक बीआर चोपड़ा (जो बाद में मशहूर फ़िल्मकार बने) ने दिलीप कुमार की अभिनय क्षमता को भांप लिया था। उन्होंने पत्रिका में इस फ़िल्म के बारे में लिखा कि दिलीप कुमार ने जिस तरह से इस फ़िल्म में डॉयलॉग डिलेवरी की है, वह उन्हें दूसरे अभिनेताओं से अलग करता है।
पहली फिल्म नहीं चली, लेकिन दिलीप ने छुआ सफलता का आसमान
दिलीप कुमार की पहली फिल्म ज्वार भाटा नहीं चली। लेकिन, देविका रानी के अनुमान के मुताबिक ही दिलीप कुमार का सितारा बुलंदियों पर पहुंचकर रोशन होता रहा और कुमार सरनेम का ऐसा जादू चला कि देखते देखते भारतीय फ़िल्म जगत में कई कुमार सामने आ गए। दिलीप कुमार को लेकर जो सेक्युलर भाव का सपना देविका रानी ने देखा था, वह कितना वास्तविक था और दिलीप कुमार अपने अभिनय से किस तरह से सेक्युलर भाव का चेहरा बने, इसे ‘गोपी’ फिल्म में मोहम्मद रफी के गाए भजन ‘सुख के सब साथी, दुख में न कोई, मेरे राम, मेरे राम, तेरा नाम एक सांचा दूजा ना कोई’ में अभिनय करते हुए उन्हें देखकर बखूबी होता है।
दिलीप कुमार ने करियर में मात्र एक फिल्म में निभाया मुस्लिम किरदार
दिलीप कुमार ने अपने करियर में 60 से ज़्यादा फ़िल्मों में काम किया। लेकिन, उन्होंने महज एक फिल्म में मुस्लिम किरदार में निभाया और वह फिल्म थी ‘मुगल-ए-आज़म’।