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तारा पाठक की यादों में बसा पहाड़ … प्राचीन प्राकृतिक उपचार

यादों में बसा पहाड़ … प्राचीन प्राकृतिक उपचार

प्रस्तुत लेख में आगे बढ़ने से पूर्व मैं इसकी आधारशिला पर प्रकाश डालना उचित समझती हूँ। जिस श्रोत के माध्यम से मैं यहाँ पर प्राकृतिक उपचारों के बारे में जानकारी साझा कर रही हूँ, इसके श्रोत हैं मेरे स्वर्गीय बाबू _श्री मथुरा दत्त जोशी जी, सन् १९०३_२०००।
बाबू ज्योतिष विद्या के प्रकांड पंडित, भविष्यवेत्ता एवं तत्कालीन वैद्य थे।बचपन से हम यही देखते_सुनते आए थे कि_फलां जड़ी से ये बीमारी खत्म हो जाएगी।इसका सत्व गुणकारी है। अमुक बीमारी के लिए इसका सेवन हानिकारक है आदि-आदि।
उन दिनों गाँवों में दूर-दूर तक कोई डॉक्टर नहीं होते थे। शहर तक जाने के लिए उचित संसाधनों का सर्वथा अभाव रहता था, ऐसे में वैद्य ही हारी _बीमारी के सहारे होते थे। बाबू की वैदिकी में कभी दाग नहीं लगा।जो भी उनसे उपचार कराता था स्वास्थ्य लाभ जरूर पाता।कई ऐसे रोमांचक किस्से हैं जिन्हें याद करके आज भी आश्चर्य होता कि__
एक छोटी लड़की छज्जे(खिड़की)से पत्थरों वाले आँगन में गिरी उसकी जीभ बीच से कट गई थी और दोनों किनारों से जुड़ी ही थी। बाबू ने बिना टांके लगाए जीभ के कटे भाग को जोड़ दिया था।
एक महिला दूसरे गांव में रहती थी। बीमारी के दौरान उसकी मौत हो गई है यह सोचकर उसकी सेवा टहल में लगे परिजनों ने गांँव वालों को बुलाया।बीमार को मृत समझ कर बाहर आँगन में लिटा दिया था तभी गाँव के ही किसी बुजुर्ग ने राय दी कि_ एक बारि मथुरा दत्त ज्यू कें देखै ल्हियो के पत्त पराण लौटि आवौ(एक बार मथुरा दत्त जी को दिखालो क्या पता प्राण लौट आएं)।
आधी रात को कुछ लोग हमारे घर आए और उनकी स्थिति बाबू के सामने रखी। बाबू उन दिनों बहुत वृद्ध हो चुके थे लेकिन वे जाने को तैयार हो गए।उनकी सेवा भावना का ही परिणाम था कि वो महिला की चेतना लौटी आई।गौरतलब है कि _बाबू केवल जड़ी _बूटियों से ही इलाज नहीं करते थे बल्कि आयुर्वेदिक दवाओं का भी बृदह भंडार था उनके पास ।अभ्रक भस्म,बसंत मालती रस,सितोपलादि चूर्ण, गिलोय सत्व, त्रिफलाचूर्ण,अश्वगंधा,मकरध्वज वटी, शिलाजीत, बृहद योगराज गुग्गुल जैसी अनेक दवाएं जिनको खाने के साइड-इफेक्ट नहीं होता था, न ही रिएक्शन ही करती थी।ये दवाएं रोग नाशक होने के साथ ही शक्ति वर्धक भी होती हैं।

बाबू ऐसे साधक भी थे जिन्होंने मंत्रों में सिद्धि प्राप्त की थी।उनका मानना था कि _जब तक आप परोपकार के लिए मंत्रों का प्रयोग करते हैं तब तक मंत्र फलदाई होते हैं। जहां से आपके मन में लोभ_लालच का वास हो गया तब से मंत्र असरहीन हो जाते हैं।वे पीलिया,नजर,डैणि,रख्वाली ,पेट का दड़ (बच्चों में पेट की समस्या)झाव , जानवरों के लिए नमक आदि के मंत्र लगाते और शत प्रतिशत सफल रहते थे।किसी जीव या धातु चिन्ता पर वे प्रश्नकर्ता की शंका का आश्चर्यजनक समाधान करते थे।

प्राकृतिक उपचार में दवाओं के साथ ही पत्थ्य और परहेज की भी बड़ी भूमिका होती है।तीखा,खट्टा,गर्म एवं बाती तासीर की चीजें वर्जित होती हैं एवं सुपाच्य भोजन जरूरी होता है।
दवाओं के साथ पत्थ्य _परहेज जितना अहम माना जाता है, उपचार करने के दौरान बाबू के साथ उतनी ही अहम भूमिका होती थी ईजा की।ईजा बीमार के लिए खाने के बारे में जानकारी देती।आस पड़ोस के बीमार का खाना स्वयं बना कर देती थी। दूरदराज क्षेत्रों से आए हुए बीमार और तीमारदारों के लिए चाय_जरूरत पड़ने पर भोजन बना कर देती थी।

बीमारी एवं उपचार_

“पीलिया” लीवर संबंधित रोग है। इसमें कमजोरी बहुत होती है।पैरों में ऐंठन होती है ।पीलिया बढ़ने पर आंखें, नाखून,मल _मूत्र का रंग पीला होने लगता है। पीलिया के रोगी को शारीरिक श्रम से बचना चाहिए एवं गर्म तासीर की वस्तुएं,दूध,हल्दी वाला खाना वर्जित मानी जाती हैं।छाछ,दही,ताजा गन्ने का रस ,कच्ची मूली ,नींबू पानी,मूंग की दाल, भट्ट के डुबके आदि का प्रयोग करना चाहिए। सुबह की नर्म धूप सेंकना अच्छा माना जाता है।इसके साथ ही सूर्योदय _सूर्यास्त के समय पीलिया झाड़ा जाता है।

“रिङौड़”(माइग्रेन) में तेज सिर दर्द होता है,उल्टी आने को जी करता है एवं आँखों के आगे गहरा अंधेरा छाने लगता है।रिङौड़ के रोगी के लिए तेज रोशनी एवं तेज ध्वनि कष्टप्रद होते हैं। वर्तमान में इसका उपचार संभव है परंतु प्राचीन समय में जामीर (कागजी नींबू जैसा फल)का रस फायदेमंद होता था।

“कब्ज़” या लंबी बीमारी के पश्चात् पेट साफ करने के लिए बकरी के जुत(बकरी बेरी) को छाछ में पकाकर बीमार के नाभि के चारों ओर गुनगुना लेप लगाते थे।

“फोड़ा” पकाने के लिए आटे की अधपकी रोटी में घी और नमक या शहद लगाकर सोते समय फोड़े की जगह लगा देते थे।फोड़े के मुंह वाले भाग को खुला छोड़ देते थे।

कान छेदने के बाद पके नहीं इसलिए चड़ी बीट लगाते थे। सुबह-सुबह जौ या गेहूँ के पत्तों की ओश या उठते ही मुँह की लार लगाई जाती थी।गाय का घी लगाकर कान के धागे को सरकाया जाता था।उन दिनों सुई में लाल धागा डालकर कान छेदने जाते थे।

“सुईमुई”(बच्चों को सूखा रोग हो जाता था) बच्चों की कमर में एक जड़ी बांधी जाती थी, धीरे-धीरे बच्चा स्वस्थ होने लगता था।

“हब्बा _डब्बा”पसली चलने पर बच्चे को सुअर की तीती चटाई जाती थी।जो कि गर्म तासीर वाली होती है।

“ददूरे”(खसरा )होने पर बच्चे को सौड़ कराते ,अगर नीम के पत्ते प्राप्त हों तो उसमें सुलाया जाता था।उसे कच्या हाड़(कछुवे का कवच)घिसकर पिलाया जाता था।खाने में कौंणी का जौल देते थे और इक्कीस दिन में वाव(नहलाना)करते थे।

“लंबी बीमारी” जैसे टायफाइड, निमोनिया में दवाओं के सेवन तो करते थे,साथ भारी भोजन की मनाही होती थी।जब तक मरीज संभल नहीं जाता।

“हड्डी टूटने पर म्यद(एक पेड़ की छाल जिसका नाम भूल गई)का लेप लगाते। हड्डी जोड़ने की अचूक दवा थी।बंद चोट लगने,सूजन आने पर नींबू (गलगल)को तवे में गरम करके सेंकते थे।हल्दी वाला गर्म दूध या फिटकरी वाला दूध फायदेमंद होता है।नमक की पोटली को गर्म तेल में डुबाकर भी सूजन वाली जगह को सेकते हैं।

“खांसी”होने पर दाड़िम का छिलका,अदरक को तवे में गर्म करके या नींबू में हल्दी लगाकर तवे में गर्म करके मुँह में रखने से राहत मिलती है।केले के पत्तों की राख में शहद मिलाकर लेने से भी खांसी में आराम मिलता है। चुटकी भर हल्दी गर्म दूध के साथ लेने पर भी सूखी खांसी में फायदा होता है।उन दिनों जुकाम लगने पर ,नाक बंद होने पर नाक में कड़ुवा तेल(सरसों तेल)की बूंदें डालते थे।सांस लेने की दिक्कत दूर हो जाती थी।सर्दी ज़ुकाम में मडुवे(रागी)की बाड़ी(हलुवा)भी देते थे।

“कान दर्द” में काली हजारी (गेंदा)की पत्तियों का रस कान में डालने से दर्द रुक जाता है।पेट में चुन्नी कीड़े होने पर मलद्वार में काली हजारी का रस निचोड़ने से कीड़े खत्म हो जाते हैं।

“आँख में चोट” के कारण लाल खून की डोरिया आँख में आ जाए तो आँख के बाहरी किनारे पर चूना बांधने से खून फट जाता था या गुनगुने पानी में चुटकी भर फिटकरी मिलाकर बंद आँखों को सेकने से भी खून फट जाता है।

“कोयले की गैस” लगने पर तुरंत खुली हवा मिले और पीड़ित के सिर में माँ का दूध(अगर कोई माँ बच्चे को दूध पिलाने वाली मिले)छपछपाया जाए तो राहत मिलती है।

“साइटिका” की परेशानी में ईन(अरंडी) के पत्तों को परांठे की भांति सेंककर लगाने से दर्द कम होता है। नसों के दर्द में आक के पत्ते को सेंककर लगाने से दर्दनाशक की भांति राहत मिलती है।गरम पानी में नमक डालकर कपड़े से सेंकते हैं।पैरों की पिंडलियों में ऐंठन होने पर पिसी हुई राई को सरसों तेल में मिलाकर लेप लगाने से ऐंठन कम हो जाती है।

“नकसीर” (नाक से खून बहने पर) में नाक में दूब का रस या सरसों तेल डालकर सिर को पीछे की ओर लटकाने से आराम मिलता है।

“लू”लगने पर आम _पुदीने का पन्ना लेने से एवं गर्मियों में खाली पेट बाहर नहीं निकलने से लू से बचाव किया जाता था।सौंफ और खांड मिश्री का सेवन भी ठंडक देता है।कच्चे प्याज का रस भी फायदेमंद होता है।

छोटे बच्चों को कब्ज होने पर हींग को गुनगुने पानी में घोलकर नाभि के चारों ओर (नाभि को छोड़कर)लगाते थे।गंद्रैणी घिसकर पिलाते एवं जड़ी _बूटियों से बनी घुट्टी भी सप्ताह में एक बार पिलाते थे।दाँत आने में दिक्कत होने पर बच्चे के मसूड़ों में शहद लगाते थे।

“दाँत दर्द” में लौंग को पीड़ा वाली जगह पर रखने से या चिलम में जमी खार को भी उस दाँत में लगाने से दर्द कम हो जाता था।उन दिनों लोग प्राकृतिक दातुन “तिमूर”या कोयले या नमक तेल के मिश्रण से दाँत साफ करते थे। लोगों के दाँत कम ही खराब होते।

“पेशाब रुकने” पर सूखा धनिया या सौंफ को भिगाकर उसका पानी पीने से या ककड़ी के बीज पीसकर लेप लगाने से पेशाब की बाधा दूर होती है। बहुत छोटे बच्चे को पानी में खेलने देने से भी उसे राहत मिलती है।

“आँख में आनड़”(आँख की ऊपरी_निचली पलक पर फोड़ा जैसा बनना)होने पर ताँबे को दही में घिसकर लेप लगाते थे।पक जाने पर कैरू(शतावरी)के कांटे से छेड़ते थे।

“सिर के जुंए”के लिए ‘बज’ कूटकर उसका रस लगाते थे और दो_ तीन बार की प्रक्रिया में जुंए खत्म हो जाते थे। नारियल के तेल में कपूर मिलाकर लगाने से भी जुंए नष्ट हो जाते थे। बालों में एक बीमारी लगती है जिससे जगह _जगह से बाल टल्ली जैसे निकलने लगते हैं, जितनी जगह के बाल निकलते हैं उतनी जगह में सिर की त्वचा चिकनी हो जाती है।इस बीमारी को खिण या खैर (एलोपेसिया) कहते हैं। इसके लिए अखरोट के दाने का हरा छिलका (बाह्य कवच)घिसकर लगाने से बाल उगने लगते हैं।

“फटे हौंठ” हों तो सोते समय नाभि में सरसों तेल लगाने से होंठ सही हो जाते हैं।

“सिरदर्द” होने पर गुनगुना सरसों तेल सिर पर लगाते थे।

“पेट में गैस” होने पर गरम पानी के साथ अजवायन की फंकी मारते थे या सौंफ मुँह में दबा लेते थे। जिन्हें गैस की अत्यधिक शिकायत रहती थी वे लोग आजकल के कानूनन प्रबंधित “चरस” की फूंक लेते थे।पदलूण(काला नमक)भी चाटते थे।कपड़े की गूंठ बनाकर गर्म सेंक भी लेते थे।

कटे में रक्त श्राव रोकने को(अक्सर घास काटते समय महिलाओं की अंगुलियां कट जाती थी)मूत्र परम औषधि है।चरस और चीनी के चूर्ण से बड़े से बड़ा घाव भी आसानी से भर जाता था।फिटकरी के चूर्ण को पानी में मिलाकर लगाने से रक्तस्राव बंद हो जाता था ।

गोबर कीटाणुनाशक होता है, विशेषकर गाय के गोबर को माना जाता है। नवजात बच्चे के जन्म के समय जच्चा-बच्चा दोनों ग्यारह दिनों तक एक कमरे के कोने में रहते थे। उनके कोने वाले स्थान को कमरे से विभक्त करने के लिए आसपास गोबर की बाड़ लगा दी जाती थी , इसके अलावा किसी की मृत्यु हो जाने पर क्रियाकर्म करने वाला व्यक्ति भी बारह दिनों तक एक कमरे के कोने में रहता था इसके आसपास भी गोबर की बाड़ लगा दी जाती थी, परंतु दोनों गोबर की बाड़ में अंतर होता था। जच्चा-बच्चा वाले कोने में दोहरी बाड़ और क्रियाकर्म करने वाले व्यक्ति के कोने में इकहरी बाड़ लगाई जाती थी।गाय के दूध,दही,घी,गोबर, एवं गोमूत्र से पंचगव्य बनाया जात है जिसमें कीटाणुनाशक क्षमता होती है।सूतक_पातक में इसे छिड़का जाता है।फसलों को कीड़ों से बचाने हेतु भी इसका प्रयोग होता है।

“जली त्वचा” में बर्फ या ओलों का पानी मिले तो उसे लगाते थे।कच्चा आलू का लेप या लाल मिर्च जलाकर उसके भूसे को गोले के तेल के साथ लेप लगाते थे।फफोले फटने पर फसकी तुमड़ि (फुसफुस) छिड़क देते थे।जले के दाग़ मिटाने के लिए मसूर दाल की पिट्ठी या गोले का तेल प्रयोग करते थे।

“कांटा” निकालने को बेड़ू का चोप लगाते थे।

“कमर दर्द” होने पर सिसूण(बिच्छू घास) झपकाते (लगाते)थे।और कहीं सिसूण लग जाए तो नाक(नक्श्राव)चुपड़ते थे।

“पेट में पथरी” की शिकायत होने पर गहत की दाल का अर्क पीते थे जिससे पथरी कट जाती थी।

सर्दियों में पैरों की एड़ियां फटने पर सोते समय लीसा गर्म करके दरारों में भर देते थे। मोमबत्ती को सरसों तेल में पकाकर उसका मलम भी लगाते थे।

“आँव_खून” की स्थिति में बीमार व्यक्ति को जामुन के तने की भीतरी छाल को कूटकर उसका अर्क पीने को देते थे या पके चावल में गर्म घी और सौंठ मिलाकर गरम_गरम तीन ग्रास खाने से भी स्वास्थ्य लाभ होता था।

कुत्ते,बंदर जैसे जानवरों के काटने पर बैंगन की लकड़ी को जलाकर उक्त जगह को दागते थे।

“मधुमक्खी या ततैया”के काटने पर डंक वाली जगह पर खट्टा लगाते थे।

“अगन बाइ”(हर्पीस)होने पर अगन बाइ की लकड़ी का लेप लगाते थे।

शरीर में पित्त होने पर नीम की पत्तियां चबाते थे।

मंत्र या झाड़ _फूंक विधि से उपचार _

वर्तमान समय में हम झाड़ _फूंक या टोटकों को नकार सकते हैं इसके कारण हैं__चिकित्सा की सुविधा, आवागमन के सुलभ साधन एवं शिक्षित समाज।शिक्षा के साथ जागरूकता और तर्क शक्ति में वृद्धि होती है परंतु प्राचीन समय में ग्रामीण क्षेत्रों में चिकित्सा का और कोई विकल्प नहीं था।लोग कम पढ़े लिखे और आस्थावान होते थे।वे हर बात को तार्किक रूप में नहीं लेते थे।किसी पर हम विश्वास करते हैं तो हमारी मानसिक दृढ़ता से हमें स्वास्थ्य लाभ होने लगता है।कुछ परिस्थिति गत मजबूरी होती थी कि और कहां जाएं। हम मंत्रों की शक्ति को सिरे से नकार भी नहीं सकते।बस सच्चा साधक हो।साधक मंत्रोच्चारण में सर्वप्रथम गुरू से आज्ञा लेता है_नमो आदेश ,गुरू को आदेश—-।

“पीलिया” के उपचार में मंत्रों के साथ पत्थ्य _परहेज चलता था।जो कि प्राकृतिक उपचार में वर्णित किया गया है।

“दड़”के मंत्र में राख की चुटकी पेट में मलते हुए मंत्र उच्चारण करते हैं।

“नजर” के मंत्र में राई, लाल मिर्च,नमक,बाएं चूल्हे की मिट्टी (तब गांवों में मिट्टी के चूल्हे होते थे)सांप की कांचुली,आटे का चोकर ,ता्र गू (ये कुछ-कुछ फॉम जैसा चमकीला होता था)लेकर संध्या समय दरवाजे पर मंत्र करते हैं ,मत्रपूरित सामग्री जला कर जिसे नजर लगी हो उसके सिर से उतार कर चौबटीया में डाल देते थे। इसके अलावा बच्चा रोते _रोते चुप ही नहीं होता था तब डैणि मंत्रते थे।

“लूंण मंत्रना” तब करते थे ,जब किसी मवेशी को बेचा जाता था ,खरीदार के हाथ का नमक खाकर मवेशी उसके ढब में आ जाता था।

“पिठ्या मंत्रने “की जरूरत तब पड़ती थी जब शुभकाज होने की तिथि में घर की महिला का मासिक धर्म होने वाला हो।

“चक्रव्यूह रचना” प्रसव को सहज बनाने के लिए कांसे की थाली में पिठ्या से की जाती थी और उक्त महिला से इसे गौर से देखने और समझने को कहा जाता था। प्रसव पीड़ा से महिला का ध्यान हटाने के लिए ये तरीका होता होगा।

“हूक”यानि कमर की नस चढ़ जाने पर उल्टा पैदा हुए जन से तीन लात (लात जोर से नहीं)कमर में मार मागते थे।

“बाइ झाड़ने”के लिए सिवाई की टहनी को मंत्र करके सुबह _शाम झाड़ा जाता था।

“मिर्गी”का दौरा पड़ने पर बांए पैर का जूता सुंघाते थे।

सोमवती अमावस्या को “ताबीज” मंत्र करके बनाते थे।

“झसक” लगने (अचानक डर जाने )पर भभूत लगाते थे।

बैशाखी की रात्रि को पेट में राख की परत लगाकर नाभि के चारों ओर ता्व गरम करके लगाते थे_ लोहे की सीक का अग्रभाग हुक की भांति नीचे को मुड़ा हुआ और सांप की दोमुंही जीभ जैसा होता था जिसे ता्व कहते थे।पेट संबंधी व्याधियों में ये पंचकर्म चिकित्सा जैसा ही होता था।

उपरोक्त सभी प्राकृतिक उपचार जड़ी_बूटी,आस्था एवं साधना आधारित होते थे। इनसे समुचित लाभ तो होता था , परंतु अंधविश्वास,लोभ एवं जड़ी _बूटियों का उचित ज्ञान नहीं होने पर कभी-कभी नकारात्मक प्रभाव भी पड़ता था।गौरतलब है कि उन दिनों कीटनाशकों का छिड़काव नहीं होता था। स्वच्छ पर्यावरण , शुद्ध आहार,सादा रहन-सहन और सीमित जरूरतों के चलते मनुष्य शारीरिक एवं मानसिक रूप से वर्तमान की तुलना में अधिक स्वस्थ एवं खुशहाल जीवन जी रहे थे। उच्च _निम्न रक्त चाप, मधुमेह जैसी बीमारियां जिनसे हर दूसरा व्यक्ति प्रभावित रहता है तत्कालीन समय में किसी ने सुनी भी नहीं होंगी।गंभीर एवं घातक बीमारियों का प्रकोप भी कुछ ही दशक पूर्व से जानकारी में आया है। पुनः स्वच्छ पर्यावरण और शुद्ध आहार की चाहत में हम भूतकाल का अध्ययन करने जा रहे हैं, परंतु स्थितियों को अनुकूल करने में वक्त लगेगा क्योंकि हम बहुत दूर आ चुके हैं।

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