Thu. Nov 21st, 2024

तारा पाठक की बाल कहानी … गंध दिवाली की

तारा पाठक

फटे-चीकट कपड़ों में छ: साल का एक बालक झोपड़ी के द्वार पर खड़ा जोर-जोर से माँ-माँ कहता और सूंऽऽ-सूंऽऽ करके लंबी सांस लेकर पूछता है- “माँ आज दिवाली है क्या?”

अंदर से आवाज आती है-“क्यों रे!झिंगे तू कहांँ चला गया था? मैं कब से तुझे खोज रही थी।”

नीचे को सरकते जांघिये को एक हाथ से रोकता झिंगा अंदर को सरक आता है, इधर-उधर देखकर फिर वही प्रश्न करता है-“माँ आज दिवाली है क्या?”

माँ ने पूछा-“किसने कह दिया आज दिवाली है? दिवाली साल भर में एक बार होती है, अभी दो महिने बीते हैं फिर से कैसे हो गई दिवाली?”

“माँ किसी ने कहा नहीं, मुझे दिवाली की गंध आ रही है।”

“दिवाली की कैसी गंध? बेटा दिवाली में तो रोशनी करते हैं।”

लंबी सांस लेकर मांँ को बता रहा है- “तुम भी ऐसा करो, तुम्हें भी गंध आएगी।”

झिंगे की माँ को हंसी आ जाती है, पलट कर अपने पति से पूछती है- “तुम्हें आ रही है दिवाली की गंध?”

माँ बेटे के वार्तालाप को
सुन रहे मैडा के झुर्रियों भरे चेहरे पर क्षणिक मुस्कान ऐसे झलकी, जैसे मकड़ी के जाले से छनकर सूर्य की किरण आती है। मैडा ने इन्कार में सिर हिलाया।

उधर, बहती हुई नाक को रोकने के असफल प्रयास के साथ नथुने फुलाता-सिकोड़ता झिंगा झोपड़ी के अंदर ऐसे घूमने लगा, जैसे डॉग स्क्वायड अपराधी की गंध पर इधर-उधर टोह लगाते हैं। अचानक एक कोने पर रखी गुदड़ी पर उसने नाक छुवाई और जोर से बोला- “ये है दिवाली की गंध। “गुदड़ी को खसीटता हुआ माँ के पास पहुँचा। बनावटी गुस्से में मांँ को झिंझोड़ता हुआ बोला- “तू झूठ क्यों बोल रही थी कि ‘आज दिवाली नहीं है।”

माँ ने सजल नेत्रों से झिंगे को निहारा और अपनी छाती से चिपका कर बोली- “अरे! बावले ये तो सेब हैं, मैं भूल ही गई थी। मालिक ने आकर दिए थे तेरे लिए। कभी तेरा बापू रिक्शा चलाकर घर आता था, तब रोज ही लाता था। जब से खटिया पर पड़ा, तू अभागे के लिए सेब की गंध का होना भर ही दिवाली है।”

उधर, मैडा का दिल छलनी हुआ जा रहा था। उसकी देह में हरकत का अर्थ लंबी सांस लेना ही रह गया था।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *