दर्द-ए-गांव: हेलो! मैं सतेली बोल रही हूं….
जगदीश ग्रामीण
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दर्द-ए-गांव: सतेली गांव
हेलो! मैं सतेली बोल रही हूं—
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मैं “सतेली” बोल रही हूं। पलायन की पीड़ा भोग रही हूं। मेरा पड़ोसी “रैठवाण गांव” अपना अस्तित्व खो चुका है। मूलभूत सुविधाओं के अभाव के कारण वहां के वाशिंदे शहर की ओर कूच कर गए हैं। सरकारी सुविधाओं के नाम पर उस गांव में एक “प्राइमरी स्कूल” मात्र था। जब लोग मजबूरीवश पलायन कर गए तो स्कूल पर भी ताला लगना ही था।

यूं ही कोई अपनी जन्मभूमि को छोड़कर किराए के मकानों में या कर्जपात कर 100 गज भूमि बाजार में ख़रीदकर अपना डेरा नहीं बदलना चाहता है जनाब! आवागमन के साधन, स्वास्थ्य सुविधा, शिक्षा, रोजगार की सुविधाएं, बिजली, पानी जैसी मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध हो जाएं तो गांव आबाद रहना चाहते हैं सरकार।
मैं सतेली हूं। आज लोग मुझे “मिनी मसूरी” के नाम से जानते हैं। क्योंकि यहां भी मसूरी की तरह चारों ओर बांज का घना जंगल है। बुरांश है, अखरोट है, सेब, नाशपाती, नींबू, काफल है। गर्मी में भी मेरे जंगलों में सर्दी जैसा वातावरण है। शुद्ध हवा और बांज की जड़ों का पानी है। आलू, मटर, अदरक, अरबी, दालें— हर फसल लहलहाती थी कभी मेरे खेतों में।

हेलो पलायन आयोग! उत्तराखंड राज्य बनने के बाद भी जब विकास की किरणों से मैं जगमगा न सकी। धरातल पर काम न होकर सरकारी फाइलों में ही योजनाओं का बनना जारी रहा। मेरी लगातार उपेक्षा होती रही। मेरी युवा स्वप्नदर्शी संतति ने कदम मैदान की ओर बढ़ाए तो मैं उन्हें रोक न सकी क्योंकि दुनिया जब मंगल ग्रह पर बसने के सपने देख रही है तो मैं अपने बच्चों को क्या कहकर बहलाती।
मेरे जो बच्चे नौकरी/रोजगार के लिए बाहर गए, वो आज वहीं के होकर रह गए। कुछ मजबूरी में गए। कुछ का एक पांव शहर में है तो दूसरा गांव में है। कुछ अपनी जमीन जायदाद बेचकर सदा के लिए शहरी हो गए हैं। कुछ आज भी अपनी माटी से नाता जोड़ रहे हैं। लेकिन, मैं मौन हूँ।
मैं कैसे कहूं अपने बच्चों से कि शहर का सुख छोड़कर फिर से गांव आ जाओ। गांव का जीवन जीना इतना सरल थोड़े ही होता है। पर्यटकों के लिए जो गांव स्वर्ग का सुख देते हैं वही गांव स्थानीय लोगों को सुख दुःख में बहुत रुलाते हैं।
मैं सतेली हूं। आज मेरे दो बच्चे यहां मेरी गोद में हैं। जिनकी वजह से मेरा वजूद है। “विमल चंद्र तिवाड़ी” और “रामलाल तिवाड़ी” और एक अतिथि “सुखराम नेगी” हैं जो मेरे लिए संतति समान हैं। 27 साल से इस गांव के एक घर को अपना आशियाना बनाकर मेरे अन्तःस्थल को आनन्दित कर रहे हैं। मेरे कुछ बच्चे बुढ़ापे में मेरी देखभाल करने/हालचाल पूछने के लिए साल-छमाही में देर-सबेर आते रहते हैं। मैं उनका भी बड़ी बेसब्री से पथ निहारती रहती हूं।
हेलो सरकार! न मैं आपसे यूनिवर्सिटी मांग रही हूं, न मेडिकल कॉलेज मांग रही हूं, न रेलवे स्टेशन मांग रही हूं, न बस स्टैंड मांग रही हूं, न कोई कल कारखाना मांग रही हूं, न डबल लेन सड़क— मुझ पहाड़न की छोटी सी आरजू है कि यहां रह रहे मेरे बच्चों के घर तक संपर्क मार्ग बन जाए, दो माह से बाधित जलापूर्ति चालू हो जाए, भोगपुर-थानों से मुझ तक पहुंचने के लिए पक्का न सही कच्चा जीप मार्ग ही बनवा दीजिए ताकि मेरे अपने मुझ तक आसानी से पहुंच सकें। मैं उनको अपने सीने से लगाकर उनका आलिंगन कर सकूं। अपने अश्रुजल से उनका आंचल भिगोकर तृप्त हो सकूं।
हेलो प्रशासन! मैं राजधानी का अंतिम गांव हूं। मुझ तक पहुंचने के लिए पड़ोसी जनपद टिहरी गढ़वाल से होकर कुछ पक्के/कुछ कच्चे जीप मार्ग से पहुंचा जा सकता है, जो कि कई घंटों का खर्चीला सफ़र है। देहरादून जनपद के रायपुर विकास खंड की “ग्राम पंचायत नाहीं” का यह गांव “ग्राम पंचायत लड़वाकोट” से 4 किलोमीटर यदि “पशनी मार्ग” (टिहरी गढ़वाल) तक जोड़ दिया जाता है तो “सतेली” संपर्क मार्ग से जुड़ सकता है और पर्यटन की दृष्टि से मसूरी को भी पीछे छोड़ सकता है। विचार कीजिएगा।
हेलो बेटों! भू माफियाओं की नज़र मेरे आंगन में पड़ने लग गई है। सावधान हो जाओ। अपनी मातृभूमि को बेचने की गलती मत करना अन्यथा एक दिन ऐसा आएगा कि उन्हीं के नौकर बन जाओगे। मां बूढ़ी हो जाती है तो क्या वह कभी काम न आएगी। विचार मंथन कीजिएगा।
हेलो! हेलो! हेलो…….
