विश्व गौरैया दिवस: आधुनिक घरों में गौरैया के लिए नहीं जगह
-कुछ दशक पहले के कच्चे, परंपरागत, खपरैल वाले घरों में घोंसला बनाने के लिए गौरैया को समुचित जगह मिल जाती थी। घरों के आसपास के आम, बांस, नींबू, करौंदे, बरगद के पेड़ों पर इनका प्राकृतिक आवास होता था। इनकी टहनियों, झाड़ियों पर आराम फरमाती गौरैया के लिए आंगन में दाना-पानी रखना हर घर का नियम सा था। आधुनिक घरों में घोंसला बनाने के लिए अब गौरैया को उपयुक्त जगह नहीं मिल पाती। अन्न के टुकड़े भी अब ड्रेनेज में चले जाते हैं। खेती में लिए प्रयुक्त कीटनाशक के अत्यधिक उपयोग ने कीड़े-मकोड़ों का भी सफाया कर दिया है। गौरैया के हिस्से में जब कुछ शेष रहा ही नहीं तो उसके अस्तित्व पर संकट आना भी लाज़मी है’।
प्रतिभा की कलम से
अपने आंगन में गौरैया को उड़ते, फुदकते देखना बहुधा सबके लिए ही आनंद का विषय है। लेकिन, चोटिल गौरैया को गिरते देखकर किसी का जीवन परिवर्तित हो जाए, ऐसा कम ही होता है। आज गौरैया दिवस है तो आइए सबसे पहले याद करते हैं बर्डमैन सलीम अली साहब को।
अपने नौ भाई-बहनों में सबसे छोटे सलीम मोईनुद्दीन अब्दुल अली की परवरिश मुंबई में उनके मामूजान ने की। एक बार उन्होंने सलीम को एक एयरगन भेंट की और तब सलीम की बंदूक के निशाने से एक गौरैया ज़मीन पर आ गिरी । वह गौरैया,गौरैया जैसी ही थी। लेकिन, उसकी गर्दन पीली थी। गर्दन के उस पीले रंग को स्पष्ट करने की जिज्ञासा के उत्तर में उनके मामूजान ने उन्हें पक्षी विज्ञानी डब्ल्यूएस मिलार्ड के पास भेज दिया, जिन्होंने नन्हें सलीम को पक्षियों से संबधित ‘कॉमन वर्ड्स ऑफ मुंबई’ नामक किताब दी। हाथ में पक्षियों की क़िताब आई तो एयरगन छूट गयी और फिर शुरू हुआ सलीम अली का पक्षी विज्ञानी बनने का सिलसिला, जिन्होंने अपनी मशहूर किताब ‘द फॉल ऑफ ए स्पैरो’ में इस घटना का विवरण दिया है।
कभी शिकारी बनने की चाह रखने वाले सलीम अली ने बिना घायल किए पक्षियों को पकड़ने की सौ से भी अधिक विधियां ईजाद की, जिन्हें आज़ हर पक्षी विज्ञानी अपनाता है। सलीम अली पहले ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने भारत भर में व्यवस्थित रूप से पक्षी सर्वेक्षण का आयोजन किया। उनके इसी योगदान के आभार स्वरूप पद्मविभूषण डॉ सलीम अली के नाम पर भारत सरकार ने कोयंबटूर में SACON (saalim Ali center for orinithilogy and natural history ) अर्थात पक्षी विज्ञान व प्राकृतिक इतिहास केन्द्र स्थापित किया।
गौरैया के गिरने की घटना ने जिनके बेमक़सद जीवन को पुनः नए आयाम दिए, वह दूसरे शख़्स हैं अर्जुन सिंह। बिहार के रोहतास जिले के मेडरीपुर गांव के अर्जुन सिंह जी ने गौरैया के रंग-रूप, रहन-सहन, आदतों के संपूर्ण लेखा-जोखा को कागज़ पर उतारने के बजाय अपना घर ही गौरैयां को समर्पित कर दिया। एक वर्ष के अंतराल में ही जब उन्होंने इधर अपने पिता और अपनी पत्नी को खो दिया तो उधर अवसाद ने उन्हें अपना लिया। एक दिन संयोगवश एक घायल गौरैया उनके सामने गिर गई। उसका दर्द अपना सा जानकर उन्होंने उसकी मरहम पट्टी क्या कर दी कि ये गौरैया तो जैसे उन्हीं के आंगन की होकर रह गई। अब रोज़ जो आंखों के सामने है तो उसे कोई नाम तो देना ही होगा न!
‘राजा’ नाम रखा उन्होंने उस गौरैया का। राजा की देखा-देखी वहां दस अन्य गौरैयां आने लगी। दस की संख्या जल्द ही सौ में तब्दील हो गई। सौ के बाद ये कारवां फिर हज़ार तक जा पहुंचा। अर्जुन सिंह की उदास जिंदगी को जीवन के मायने मिल गये। अपने माटी वाले पुश्तैनी घर को तोड़कर उन्होंने नया मकान बनवा लिया। इस पक्के मकान में उन्होंने दो हज़ार घोंसले बनवाए । लगभग आठ हज़ार गौरैयां की गिनती अब प्रतिदिन यहां की जा सकती है।
वर्ष 2013 तक बिहार में गौरैयां की संख्या बहुत कम रह गई थी। इन्हें बचाने के उद्देश्य से बिहार सरकार ने उसे राज्य पक्षी घोषित कर दिया। अर्जुन सिंह के प्रयास से मेडरीपुर के आसपास के अन्य गांवों में भी गौरैया की संख्या में इज़ाफ़ा होने लगा और लोग उन्हें स्पैरोमैन के नाम से जानने लगे। वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की ओर से कई पुरस्कार उन्हें मिले हैं।
अर्जुन सिंह जी कहते हैं कि भोर में चिड़ियों की चहचहाहट के साथ आंख खोलना अलौकिक अनुभूति है। ‘जैसे जिस जगह डॉल्फिन रहती है नदी में उस जगह का पानी शुद्ध माना जाता है। उसी तरह अगल-बगल के कीड़ों को खाकर गौरैया भी पर्यावरण को स्वच्छ करती है, इसलिए इनके साहचर्य का मतलब है कि हम शुद्ध आबोहवा में सांस ले रहे हैं’।
‘कुछ दशक पहले के कच्चे, परंपरागत, खपरैल वाले घरों में घोंसला बनाने के लिए गौरैया को समुचित जगह मिल जाती थी। घरों के आसपास के आम, बांस, नींबू, करौंदे, बरगद के पेड़ों पर इनका प्राकृतिक आवास होता था। इनकी टहनियों, झाड़ियों पर आराम फरमाती गौरैया के लिए आंगन में दाना-पानी रखना हर घर का नियम सा था। आधुनिक घरों में घोंसला बनाने के लिए अब गौरैया को उपयुक्त जगह नहीं मिल पाती। अन्न के टुकड़े भी अब ड्रेनेज में चले जाते हैं। खेती में लिए प्रयुक्त कीटनाशक के अत्यधिक उपयोग ने कीड़े-मकोड़ों का भी सफाया कर दिया है। गौरैया के हिस्से में जब कुछ शेष रहा ही नहीं तो उसके अस्तित्व पर संकट आना भी लाज़मी है’।
अर्जुन सिंह जी कहते हैं कि सालभर में पंद्रह से सोलह क्विंटल धान वह सिर्फ़ गौरैयां को परोस देते हैं। बहुत सुख है इस महाभोज में। ऐसा संगीतमय जीवन कहां हर किसी को नसीब! अर्जुन सिंह जो बताते हैं उसके बाद कहां कुछ और शेष बचता है गौरैया दिवस पर अपनी तरफ से कुछ कहने को!
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