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आज भी याद है दादी और दादी का रेडियो

मेरी दादी का 📻 रेडियो
घर में दो लोग है मैं और मेरी दादी, एक मासूम, बेवकूफ़ अल्हड़ सा बचपन दादी के साथ जिया जब मैं बहुत छोटी थी पाँच छः साल की थी शायद और हमारे साथ को भरा पूरा करता था मेरी दादी का रेडियो, ये उस वक्त की बात है जब टेलीविज़न गाँव में महज एक दो लोगों के घर पर होता था और जगह ही नहीं होती थी टीवी देखने की, ऐसे खचाकच भरे रहते थे गाँव के सभी लोग। इस तरह अपने पास तो रेडियो ही था, रेडियो से एक अलग सा रिश्ता कायम हो गया , सारे स्टेशन रट लिये कि, कैसे कहाँ पर सैट करना है, आकाशवाणी, नजीमाबाद, विविध भारती आदि , जीवन के उस नफीस दौर में हम उस वक्त थे जब बनावट या नकलीपने का कोई नामों निशान नहीं था, आपके पास भावो का अपार समंदर है और हर छोटी छोटी चीजों से वो भाव जुड़ जाता था।
रेडियो पर पुराने फिल्मी गाने चल रहे है और मैं उसकी ध्वनि को जितना सम्भव है बड़ा कर छज्जे में रख देती हूँ और फिर घर के बाकी काम निपटा रही हूँ। कोई फिक्र ही नहीं कि लोग क्या कहेगे क्योंकि कोई कुछ कहता भी नहीं है उस वक्त तक दिखावे का लिबास किसी ने पहना ही नहीं था।
उस रेडियो से इतना लगाव था मुझे कि मेरे सिरहाने में हमेशा वो मेरे साथ ही रहता था, यहाँ तक कि जब गाय चराने जंगल में जाती थी, तो दादी से छुपा कर रेडियो भी साथ ही जा रहा है। रफी सहाब, किशोर दा, लता मंगेश्कर, सभी से एक अपनापन सा हो गया मतलब दिन रात सुन सुन कर वो सब करीब लगने लगे अपने। जीवन ने रफ्तार ली, हम भी बड़ते चले गये नये नये आधुनिक उपकरण( Device) सामने आये, टीवी, कम्यूटर, लैपटॉप फोन, मोबाइल और भी न जाने क्या क्या, लेकिन मैं अगर आपसे दिल की बात कहूँ सब बदलते रहे रेडियो नहीं बदला वो अपने वजूद में आज भी अडिग है,
यकीन के साथ कह रही हूँ अगर आपको वास्तविक घटनाओं से मुखातिब होना है तो रेडियो सुनिए,
यहाँ कोई चापलूसी चाटुकारिता नही है ,हम हर उस रंग को सुनकर ही स्पर्श कर लेते है जो हमारे देश की कला, सभ्यता, रीति रिवाज को महसूसता है। रेडियो देश के आख़िरी व्यक्ति से संवाद करता है, मतलब कि वो, दर्जी के पास भी रखा है, वो दुकानों में है, बूट पॉलिस करता हुआ रेडियो सुन रहा है, सब्जी वाला, चाय वाला, सभी से रेडियो की तरंगे जुड़ी है और आजकल FM 📻 गाड़ियों में पहली पसंद है। आज वर्ड रेडियो डे पर मैं बहुत उत्साहित होकर आपसे दिल की बात सांझा कर रही हूँ, कि रेडियो से प्रेम मुझे आकाशवाणी देहरादून तक पहुँचा देगा ये तो मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था। जब मुझे पहले दिन प्रसार भारती के प्रांगण में जाने का अवसर मिला तो मेरे अंदर दादी के रेडियो की वो यादें कौंधने लगी, और माँ शारदे की मूर्ति पर नज़र पड़ते ही दादी का ख़याल आया कि कहीं न कहीं ये मेरी दादी का आशीर्वाद ही है जो मैं आज यहाँ पर हूं। संयोग और शिद्दत से चाहना पर, हमेशा से मुझे यकीन रहा है, दादी का रेडियो। इन मधुर स्मृतियों के साथ आप सभी को अन्तर्राष्ट्रीय रेडियो दिवस की शुभकामना।
ज्योत्स्ना जोशी

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