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सातवीं सदी की परंपरा को जिंदा रखे हुए हैं ठाकुर भवानी प्रताप

वीरेन्द्र डंगवाल ‘पार्थ’

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उत्तराखंड गढ़वाल (टिहरी रियासत) के महाराजा नवरात्र की अष्टमी को करते थे शस्त्र और शास्त्र पूजन। राज-परिवार के सदस्य ठाकुर भवानी प्रताप सिंह पारंपरिक रूप से प्रतिवर्ष आज भी पूजन कर निभाते हैं पूर्वजों की परंपरा।

देहरादून। भारत की आजादी के बाद देश में राजे-रजवाड़ों का शासन नहीं है। लेकिन, राज परिवारों की कई अनूठी परंपराएं आज भी जीवित हैं। ये परंपराएं राज-परिवारों की पहचान के साथ उनका गौरवमयी इतिहास भी संजोए हुए हैं, उसे आज भी जिंदा रखे हुए हैं। इन्हीं परंपराओं में अविभाजित भारत की टिहरी गढ़वाल रियासत (वर्तमान उत्तराखंड) के राज परिवार की शस्त्र व शास्त्र पूजन की परंपरा भी जीवित है। जिसे राज परिवार (परमार/पंवार वंश) के वर्तमान सदस्य आज भी पूरी परंपरा के साथ निभा रहे हैं।

सातवीं शताब्दी से शुरू हुई शस्त्र व शास्त्र पूजन की इस परंपरा को वर्तमान में राज परिवार के सदस्य ठाकुर भवानी प्रताप सिंह पंवार विधि-विधान के साथ कर रहे हैं। चांदपुर गढ़ी से शुरू हुई यह परंपरा देवलगढ़, श्रीनगर नगर, टिहरी से होते हुए देहरादून तक पहुंंच गई है। ठाकुर भवानी प्रताप सिंह प्रतिवर्ष राजपुर रोड देहरादून स्थित समर निवास टिहरी हाउस में परंपरा के अनुसार शस्त्र व शास्त्र पूजन करते हैं। पूजन में राज परिवार के सदस्यों के साथ ही पूर्व में थोकदार रहे लोग भी शामिल होते हैं।

सदियों पुरानी तलवारों का हुआ पूजन

पूजन में महाराजा फतेह शाह, महाराजा अजय पाल, महाराजा प्रद्युम्नशाह, महाराजा सुदर्शन शाह, महाराजा भवानी शाह, महाराजा प्रताप शाह आदि की तलवारों के साथ ही अन्य शस्त्रों की पूजा होती है। सदियों पुराने इन शास्त्रों में रियासत में दीवान व सेनानायक जैसे पदों पर रहे पुरिया नैथाणी की दो तलवारें भी शामिल हैं। पुरिया नैथाणी को उस वक्त रियासत का चाणक्य कहा जाता था। इतिहास में उल्लेख मिलता है कि नैथाणी ने अपनी बुद्धिमता व वाकपटुता से औरंगजेब से गढ़वाल में जजिया कर खत्म करवा दिया था।

महाराजा प्रद्युम्न शाह की तलवार के साथ पूजन कीर्ति प्रताप सिंह।

कनकपाल से शुरू हुआ परमार/पंवार वंश

गढ़वाल में परमार या पंवार राजवंश महाराजा कनकपाल से शुरू हुआ। उल्लेख मिलता है कि धारनगरी (वर्तमान मध्यप्रदेश) से कनकपाल हरिद्वार यात्रा पर आए थे। यहां आने के बाद संयोगवश गढ़वाल के चांदपुर गढ़ के राजा भानु प्रताप की बेटी से उनका विवाह हो गया। भानुप्रताप का कोई बेटा नहीं था, इसलिए उन्होंने कनकपाल से बेटी की शादी करने के साथ ही राजपाट भी उनको दे दिया। इस तरह यहां परमार/पंवार वंश का शासन शुरू हुआ था। माना जाता है 866 ईस्वी में कनक पाल यहां आए। हालांकि, इसको लेकर मतभेद है, कहीं-कहीं इसे 756 ईस्वी भी लिखा गया।

परमार/पंवार वंश ने किया गढ़वाल को एक

महाराजा कनकपाल के समय गढ़वाल 52 गढ़ों में बंटा हुआ था। जिन पर अलग-अलग जातियों के गढ़पति (भड़) राज करते थे। परमार/पंवार वंश की 37वीं पीढ़ी में हुए महाराजा अजयपाल ने 52 गढ़ों को जीतकर संपूर्ण गढ़वाल में एक राज स्थापित किया। इसी वंश ने आगे चलकर कुमाऊं को भी नियांतण्रमें ले लिया। यह अकेला राजवंश है जिसने वर्तमान संपूर्ण उत्तराखंड (गढ़वाल-कुमाऊं) पर शासन किया था।

कमान संभाले हैं भवानी प्रताप सिंह

शस्त्र व शास्त्र पूजन की बागडोर संभाले भवानी प्रताप सिंह टिहरी रियासत के महाराजा प्रताप शाह के द्वितीय पुत्र राजकुमार विचित्र शाह की शाखा से हैं। भवानी प्रताप सिंह के पास गढ़वाल रियासत की विभिन्न धरोहरों का अनूठा खजाना है। उनके पास हजारों वर्ष पुरानी पांडुलिपिया भी हैं। वर्तमान में वह पुराना दरबार ट्रस्ट के माध्यम से धरोहरों को संजोने व उन्हें सुरक्षित रखने पर काम कर हैं।

पहले दी जाती थी नरबलि, अब काटा जात है भुजेला

शस्त्र और शास्त्र पूजन के दिन पूर्व में नर बलि दी जाती थी। कहा जाता है कि शंकराचार्य ने नर बलि की प्रथा रुकवा दी थी। तब से सांकेतिक रूप से बलि देने की रस्म निभाई जाती है। नर बलि के स्थान पर भुजेला काटा जाता है। यदि भुजेला बनाए गए यंत्र में बीचोंबीच एक झटके में बराबर भाग में कट जाए तो उसे शुभ और राज्य में सुख-समृद्वि का प्रतीक माना जाता है। इस वर्ष पीसीएस शैलेंद्र सिंह नेगी ने भुजेला काटा, जो कि रखी गई जगह में बीच से बराबर भाग में कटा। इसे राज्य के लिए शुभ माना जा रहा है।

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