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गुरु और अभिभावक का स्नेह और अनुशासन पहुंचाता है सफलता के शिखर पर

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु: गुरुर्देवो महेश्वर: !
गुरु: साक्षात् परब्रह्म: तस्मै श्रीगुरवे नमः!!
भारत के द्वितीय राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी की जयंती (5 सितंबर) पर हम इन महान दार्शनिक प्रखर विद्वान, शिक्षाविद् व शिक्षक के महान पेशे का सम्मान करते हैं। शिक्षा की इस महान परम्परा को जारी रखना हमारी जिम्मेदारी है। हर्ष का विषय है कि विषम परिस्थितियों में रहकर हम सब जिम्मेदारी बखूबी निभा रहे हैं। भविष्य के वाशिन्दों अर्थात नयी पीढ़ी को दुनिया से मुकाबला करने के लिये इन्हें तैयार करके, व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की अमूल्य सेवा कर रहे हैं। महात्मा गांधी ने ठीक ही कहा है कि विद्यार्थियों व अध्यापकों दोनों के मस्तिष्क को अवरुद्ध नहीं करना चाहिये अर्थात उनके कौशल बढ़ाने के निरंतर प्रयास किये जाने चाहिये। विशेषकर ग्रामीण विद्यालयों में बुनियादी सुविधाओं की उपलब्धता हो, तभी ग्रामीण प्रतिभाओं को प्रोत्साहन के उद्देश्य को पूरा किया जा सकता है। प्रत्येक अपने कर्त्तव्य निर्वहन करें तो सब सम्भव है। निष्ठापूर्वक कार्य करने वालों के कार्य में सहयोगी बनना होगा, तभी हमारा आदर्श एवम् गौरव बना रहेगा।
एक शिक्षक के रूप में हमें, बच्चों को जिज्ञासा से सीखने का वातावरण उत्पन्न करने में सहयोगी बनना होगा। शिक्षा से ही मनुष्य का जीवन गरिमामयी हो सकता है, वह आत्मनिर्भर हो सकेगा। अच्छी शिक्षा से राष्ट्र का सही निर्माण हो सकता है। अच्छे शिक्षक को सभी बच्चे समान रूप से दिखाई देने चाहिए, उन्हें जितना हो सके स्वतंत्र छोड़ना होगा। बच्चों के ऊपर किसी भी प्रकार का अनुशासनात्मक अंकुश न हो। बच्चों को स्वंय अपने मन-मस्तिष्क से सोचकर सीखने का अवसर देना होगा। वह स्वयं के कार्यानुभव से सीखें, अपनी मन पसन्द रुचि से सीखें। पढ़ाते समय शिक्षक बच्चे को गुलाम न समझें, बल्कि सोचना चाहिए कि बच्चों में असीमित जिज्ञासा है। बच्चे की सहज जिज्ञासा उसमें सीखने का वातावरण पैदा करती है। शिक्षक मात्र सहायक की भूमिका में ही रहे, बच्चा स्वयं ही सीखेगा।
भौतिकवादी युग में रोजगार के चक्कर में अधिकांश माता-पिता बच्चों को समय नहीं दे पा रहे हैं। घर में बच्चों को मां-बाप का स्नेह व देखरेख अवश्य मिलना चाहिए। वहीं, स्कूल में सुरक्षा एवं विश्वास का माहौल भी। सीखने के समान अवसर के साथ स्वतंत्र वातावरण मिलना आवश्यक है। प्रत्येक बच्चे में कुछ जन्मजात शक्तियां अवश्य होती हैं, उन शक्तियों को केवल स्नेहपूर्ण परिवरिश से ही उभारा जा सकता है।
भारत रत्न डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी के आदर्शों से प्रभावित दिखाई देते हैं शिक्षक बच्चे
प्रतिस्पर्धा के दौर में आमजन का बच्चों के भविष्य के प्रति जागरूक होना स्वाभाविक है। येन-केन प्रकारेण अभिभावक बच्चों की जरूरतें पूरी करने में खुद को झोंकता हुआ दिखाई देता है। सूट-बूट, टाई-बेल्ट, चमचमाती कार, कंधों पर लैपटॉप, हाथों में महंगे मोबाइल, बड़ी शान-शौकत से बहुमंजिला स्कूलों में बच्चे छोड़ते हुए अभिभावकों को अक्सर स्कूल गेट तक जाते हुए देखा जा सकता है। गेट बंद, गेट पर गार्ड मुस्तैद, जी हां अन्दर की हकीकत से अभिभावक अनजान है। बच्चा सीनियर सेकेंडरी का हो या नर्सरी लेवल का। होमवर्क की जिम्मेदारी अभिभावकों की। तब चाहें तो वे स्वयं बच्चे के साथ बैठें, ट्यूशन लगाएं अथवा कोचिंग क्लास ज्वॉइन करवाएं। लेकिन, पहला विकल्प तो कतई सम्भव नहीं। माता-पिता रोजगार के चक्कर में घर से बाहर जो हैं। अन्य कोई विकल्प नहीं, घर में क्षेम-कुशल पूछने वाला तक नहीं। एकल परिवार जो है, कारण आजकल सयुंक्त परिवार बर्दास्त नहीं। जी हां वास्तविकता यही है, हकीकत बयाँ करने में कोई गुरेज भी नहीं……..
चिन्तनीय, सोचनीय, विचारणीय
आजादी के सात दशक बीतने के बाद भी अधिकांश लोग खेती-बाड़ी अथवा दैनिक मजदूरी कर जीवन यापन करते हैं। सुखद यह है कि भाग-दौड़ की जिंदगी में वे ख़ुशी-ख़ुशी बच्चों के भविष्य के प्रति जागरूक दिखाई देते हैं। राजकीय विद्यालयों में उनकी आस्था ही उनके सपनों को साकार रूप दे रहे हैं। इसमें कोई शक भी नहीं, बच्चे भी पैरेंट्स को अपेक्षा के अनुसार ही परिणाम दे रहे हैं। संतोष यहां पर होता है कि अति-दुर्गम विशिष्ट विद्यालय, जहां दूर-दूर तक कोई सुविधा-साधन उपलब्ध नहीं, किन्तु बच्चों में पढ़ाई के प्रति लग्न व उत्साह, उनमें शिक्षकों के प्रति सम्मान एवं आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ने की चाह ! यह देख अभिभावकों के चेहरे भी खुशी से खिल उठते हैं, उनमें राजकीय विद्यालयों के प्रति विश्वास के साथ ही संतोष की झलक दिखाई देती है। छात्र-छात्राओं के विचारों को सुनकर लगता है कि टेक्नोलॉजी के इस युग में बच्चे इतिहास से भलीभांति परिचित हैं। देश को दिशा दिखाने वाले महान व्यक्तित्वों के आदर्शों पर चलने का संकल्प लिए हुए ये नौनिहाल निश्चित रूप से अपना लक्ष्य हासिल करेंगे, ऐसा विश्वास है।
बच्चों की जुबांनी
हमनें भी बचपन में सपना देखा था कि हम बड़े होकर कामयाब इंसान बनेंगे। हमने अपनी मंजिल की राह पकड़ ली है, हमारा सपना है कि अपने देश का नाम ऊंचा कर, अपने ही जैसे अन्य (जरूरतमंद व अभावग्रस्त) बच्चों की भी सहायता कर सकें। आगे कहते हैं कि हमारे जहाज ने सपनों की उड़ान भर ली है। बस देर है तो मंजिल तक पहुंचने की। किन्तु मंजिल इतनी आसान नहीं होती, कुछ पाने के लिए कुछ त्यागना भी पड़ता है अर्थात कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। जो कभी सपने नहीं देखते, वे उन्हें पूरा भी नहीं कर सकते। यदि आपने भी कोई सपना देखा है तो वे आप ही हैं, जो उसे पूरा कर सकते हैं।
अतः शिक्षक दिवस पर सादर निवेदन करना है कि इस उड़ान में आप भी हमारे साथ आइए। हमनें तो शुरुआत कर दी है लेकिन, कुछ अभी भी हैं जो पीछे छूट गए हैं, उन्हें संभालिये, उन्हें भीड़ में खोने न दीजिए, अपना समूर्ण योगदान दीजिएगा, ऐसे जरूरतमंद-अभावग्रस्त बच्चों की जिन्दगी संभालने में।

कमलेश्वर प्रसाद भट्ट
राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त शिक्षक
राजकीय इंटर कॉलेज बुरांसखंडा, देहरादून

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