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पड़ोसन को देखकर इठलायेगा दून तब भी … प्रतिभा की कलम से

लोग कहते हैं कि देहरादून की आबो-हवा बदल रही है। लेकिन, ये खुशगवार मौसम देखकर तो लगता है कि अगर यहां पेड़ भी सीमेन्ट के उगने लगें तब भी मौसम हमेशा इठलाया करेगा, इसकी शाखों पर अपनी पड़ोसन ‘पहाड़ों की रानी’ मसूरी को देखकर।
‘गुल मोहम्मद’, हाउसबोट, बर्फ, बुखारी, केसर, सेब, फूल, चार-चिनार और ..मेरा प्यार .. शालीमार, निशात..। जैसे जहांगीर और नूरजहां के लगाऐ बाग-बगीचे !! कश्मीर घूमने की हसरत ही रह गई दिल में !!
माना कि जन्नत है कश्मीर पर आतंकी, पत्थरबाज !
हां ! सचमुच में जहन्नुम की सैर करा देंगे अगर गये तो .
अब लगता है जाने की जरूरत भी क्या है जब अपने ‘दून’ की फिजा उससे भी दिलकश है और महफूज भी। क्योंकि अमन-चैन सांस लेते हैं यहां की हवा में। डालनवाला की गलियों में खिले जल-परी के फूल, एफआरआई की सुन्दर वाटिकाऐं , सहश्रधारा, बुद्धा पार्क , मेरे घर के पास का राजा का बगीचा या हमारी कॉलोनी के पेड़-पौधे !! हर शाम ये हंसी मंजर आंखों में भरकर सोती हूं, पर एक दहशत काबिज़ रहती है मेरे दिल पे भी, कि सुबह तक गायब तो न हो जायेंगे ये नजारे ! रात को ठीक से ऩींद भी नहीं आती कि कहीं कोई उगा न ले इनकी जगह सीमेंट के पेड़ !! और सच में बदल न जाये कहीं दून का मौसम।
कहीं पढ़ा था कि अपने-अपने मौसम की अपनी-अपनी बातें होती हैं, इसलिए हर मौसम पसन्द है मुझे .. पर सर्दियों से पहले का ये मौसम तो कुछ ज्यादा ही लुभाता है।
रेशमी साड़ियों को धूप दिखाने के बाद तह करके ऱख देने सरीखे ही जाते हुए मौसम की यादों को वर्ष की आलमारी में बन्द करने का मौसम ! एक हाथ में ओस भीगी रात तो दूसरे हाथ में गुनगुनी धूप का दिन लिए खड़ा हो मौसम। जिस तरफ, यादों के करवट बदलने का मौसम उस तरफ।
हद में हों मौसम तो मौसमों का लुत्फ उठाना ही जिन्दगी है, पर चार मौसमों के अलावा एक और मौसम जिसकी कोई हद नहीं, पर बंदिशें हजार होती हैं, इस पे… ‘ प्यार का मौसम’ .
ये कब आ जाये पता नहीं, पर जब आ जाये तो हर मौसम ‘बसंत बहार’ लगता है। बात-बात में जिन्दगी को कोसने वाले लोग भी कहते हुए सुने जाते हैं कि ‘मुहब्बत में बिताया एक पल भी सदी होता है’ इसकी दूसरी लाइन से अनजान कि ‘जुदाई में बहाया एक आंसू भी नदी होता है’। एक और मौसम जो मेरे दिल के बेहद करीब है ..सदाबहार है … शर्मिला टैगोर, संजीव कुमार और गुलजार साहब का ‘मौसम’। इस फिल्म का जिक्र किया होगा मैंने दो-तीन बार और कोई सुने तो कर सकती हूं कई बार, क्योंकि इस फिल्म की कहानी और कमलेश्वर के संवादों का मौसम तो कभी नहीं उतरने वाला मेरे दिल से।
देखी तो होगी आपने भी !!
गुलजार की मौसम के बहाने ‘कमलेश्वर’ को याद करने का मौसम और कमलेश्वर के बहाने ‘मांस का दरिया’ जिसके बिना शायद मुकम्मल नहीं हो पाता ‘मौसम’ का ‘मौसम’।
– प्रतिभा की कलम से

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