मेरा पहाड़ फिर से गुंजायमान हो रहा है
गुनगुनाती जब
एक टक निहारूं,
मेरे पहाड़ तुझ पर
यूँ वारी जाऊं,,
तेरी ठंडी हवाओं को
कैद कर लूँ,
एक बंद लिफाफे में
उन्हें मैं भर लूँ ,,
जब जी करे
थोड़ा थोड़ा खोलूं ,,
एक एक घूंट तुझे
अपने में ले लूँ ,,
बस यूँ ही हमेशा,
सिलसिला चलता रहे,,
जब भी चलूँ बेपरवाह सी ,
इन पहाड़ों के दरमियान ,,
जानती हूँ पहचानता है,
क़दमों की हर आहट को तू,,
फिसले कदम तो
थाम लेगा मुझे तू ,,
ये फिसलकर संभलना
सिखाया तूने ही ,,
सलीका जीने का
बतलाया तूने ही ,,
आज फिर दूर कोई वादन ,
सुनाई दे रहा है ,,
मेरा पहाड़ फिर से
गुंजायमान हो रहा है ,
मानो कोई दर्द
फिर दूर हो रहा हो ,,
जैसे टेसू की चादर से
ढक दिया मन मेरा हो ,
एक सुकून ,इस संगीत का ,
फिर महसूस कर रही हूँ ,,
एक घूँट लिफाफे से
फिर पी रही हूँ ,,
जो चुराया था
चुपके से ,
तेरे पास आकर ,
हां तेरे पास आकर ….
“दीप”