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मेरी डांडी कान्ठ्यूं का मुलुक जैल्यु बसंत ऋतु मा जैई…

मेरा डांडी कान्ठ्यूं का मुलुक जैल्यु
बसंत ऋतु मा जैई,
बसंत ऋतु मा जैई….
हैरा बणु मा बुरांशी का फूल जब बणाग लगाणा होला,
भीटा पाखों थैं फ्यूंली का फूल पिंगल़ा रंग मा रंगाणा होला,
लय्या पय्यां ग्वीर्याळ फुलू न होली धरती सजीं
देखि ऐई..बसंत ऋतु मा जैई….. ”
कितना खूबसूरत नेगी जी का गाया यह गढ़वाली गीत जिसका अर्थ है- मेरे पहाड़ों में जब भी जाना चाहो तो बसंत ऋतु में जाना। जब हरे भरे जंगलों में गाढ़े लाल रंगों में खिले बुरांश के फूल वनाग्नि जैसे दिखेंगे, घाटियों को फ्योंली के फूल बासंती रंग में रंग रही होंगे और धरती लाई (सरसों), पय्यां और ग्वीराळ (कचनार) के फूलों से रंगी अपनी सुन्दरता का बयान कर रही होगी।
बसंत ऋतु के आगमन पर कई गाने लिखे गए हैं, आखिर ऋतुराज की संज्ञा जो दी गई है इसे। जी हाँ बसंत ऋतु मेरे पहाड़ में जब सर्द हवाएं थोड़ा मंद होने लगती है, उसकी छुअन अब चुभती नहीं बल्कि एक मदहोशी सी छाने लगे, पहाड़ ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण धरा बसंती चुनर ओढ़े अपने यौवनावस्था में हो तब मन प्रफुल्लित हो प्रेमांकुर पनपने लगते हैं, बिलकुल मेरे पहाड़ में बंसत का आगाज भी कुछ ऐसा ही है। मेरे पहाड़ के खेतो में सरसों के फूल लहलहा रहे हैं, बीठा पाखौं पर खिली फ्यूंली की पीली पीली पंखुड़िया सौजड़यों की याद दिलाने लगी है। सुर्ख लाल बुरांश की लालिमा से जंगल लकदक हो चले, नयी खुशहाली नयी उमंग मे लवरेज पहाड़ की डांडी काँठी सजने लगी है, जब खुद धरा हमें यह मौका दे रही है खुशियों भरा तो फिर ऐसे में कोई क्यों न यह त्यौहार मनाये, शायद दुनिया में हर कहीं अपनी अपनी भाषा बोली और अपने अपने फूलों पेड़ों में वसंत ऐसे ही आता होगा। तो वसंत को क्यों न उसके इस कोमल और मीठे दर्द से भरे आह्वान के साथ रहने दिया जाए। क्यों न उसमें वीरानी और इंतजार के अहसासों को दूर से देखा जाए. वही तो उसके रंग हैं। हम अब इस उम्र में कि बचपन रह रह कर याद आता है। अपने माँ- बाप के द्वारा हर त्यौहार को एक उत्सव सा मनाते थे।आज भी याद करते सब कुछ तो पीला होता था, खाना पीला,पहनना पीला, टीका पीला, सब कुछ बसंती रंगों से रंगे होते थे। अब हमारी बारी अपनी उसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए अपने बच्चों को भी उसी रंग में रंगे, जिससे वो भी अपने बचपन को उसी तरह याद कर सकें जैसे हम कर रहे हैं।पहन ओढ़नी पीली पीली
चारों और लहराई सरसों
मुल मुल हंसती देखो सरसों
बसंत का स्वागत बढ़ चढ़ कर,
करके धरती ने श्रृंगार
मन मन मुस्काई है सरसों
पवन के झोंकों संग
कोहरे संग लहराई है सरसों।।
“दीप”

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