मेरे कातिल…तुझसे मिलने आऊंगी हजार बार…
वो थी इस जमीं की। जहां फूल, तितली, जुगनू और परिंदों से उसे प्यार था। मगर इनमें से किसी को भी उससे नहीं। क्योंकि कोई न उसके हाथ पर खिलता था और ना कोई उसकी मुट्ठी में आता था। मखमल था उसका दिल। मगर कोई जो कभी दाखिल हो सके इतनी नाजुकी से कि सिलवटें न पड़ जायें दिल की मखमली चादर पर!
किसी वीरान मौसम में उसने एक बार घबराकर ताका आसमान की तरफ। साफ था आसमान। नीला.. सूरज की रोशनी में बेहद खूबसूरत नजर आता हुआ। मन हुआ उसे कि वह अपनी काली पलकें रख दे इस नीले चेहरे पर। आसमान ने भी एतराज ने किया। झुका सा जान पड़ता था वह भी, जब ये अपना चेहरा उठाकर अपलक उसे ताकती। कुछ फिर वह फूलों की कतर-ब्योंत में खोई। कुछ भागी तितलियों के पीछे। जुगनू वाली रातों में भूल गई आसमान की ओर देखना। कई दिन से कोई खत भी न लिखा उसने परिंदों के ‘पर’ पर आसमां के नाम। मगर मजाल क्या कि एक बूंद ओस भी कहीं कम हुई हो उसके चाँद से दिल में मौजूद मोहब्बत के कटोरे से। एक सुबह ओस पर नजर पड़ते ही सुलग उठे उसके गाल फिर से। याद आई बेइंतहा आसमां की। हुलस कर फिर उसने गर्दन उठाई। जुल्फें फैल गई पीठ पर। स्याह करती थी जो बदन को। उसी तरह आसमान भी घिरा हुआ जगह-जगह से भूरे-काले बादलों के बीच। वह बुरी तरह तलाश करती है आसमां के उस निर्मल चेहरे को। मगर नहीं ! उसमें उग आयी हैं डरावने बादलों की कई -कई आँखें। जो मांगती है कैफ़ियत! आसमां की तरफ प्यार भरी नजर उठाने की ज़ुर्रत के बाबत। लड़की की आँखों में सावन-भादो तैर गए। मगर आसमाँ साफ ना हुआ। महीनों का सूखा पड़ा रहा फिर नेह की बरसात पर। ना आसमान झुका, और न वो नजर उठाने की हिमाकत कर सकी। एक परिंदा जो कभी खत ले जाता था ‘इसका’ ‘उसके’ नाम। गुजरा आज उसकी पलकों के तले-तले। शरद पूर्णिमा की रात थी। आसमाँ ने थोड़ी चाँदनी छिड़क कर ‘प्यार’ लिख दिया था उसके पँखो पर विगत प्रेम के नाम। पढ़ा ‘इसने’ वो शीतल अफ़साना। तन-मन भीगने लगा ठंडी फुहार से। उम्मीद भरी निगाहों से आसमां की तरफ ताका उसने। साफ था वह भी पहले की तरह हँसता हुआ। फिर उसके कदमों में बिछने को तैयार। मिले फिर हवा में। लिपटे इस तरह कि ‘इसकी’ चूनर से ढक गया सिर से पैर तक आसमान। गुजरे सितम ‘इसकी’ आंखों से सैलाब बनके फूटा। शिकायतों के गुबार उठने लगे ‘उसके’ दिल में बहुत जोर से। दिलों की धड़कन मद्धम पड़ गई । घिर गया आसमान फिर से काले -भूरे बादलों के बीच। घबराकर छुड़ा लिया ‘इसने’ अपने आपको ‘उसके’ आगोश से। कट के रह गया दिल सोच के, कि वह जमीन की है उसे जमीं में ही रहना चाहिए। नहीं चाहिए कोई दिलदार। शुष्क मौसम की आहें आँसुओं की नमी में घुल भाप बनकर उड़ाने लगी ढेर सारा प्यार। उठी बदन में फिर एक लहर। आसमाँ के हर चुम्बन पर कहती बार – बार- ‘मेरे कातिल’ ! तुमसे दिल लगाने मैं आऊंगी हजार बार।
चाँद वाली रातों में… प्रतिभा की कलम से