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युवा कवि अमित नैथानी ‘मिट्ठू’ की एक गंभीर रचना.. हम न्यूटन-आइंस्टीन रटते गये और सुश्रुत-कणाद को भूलते गये

अमित नैथानी ‘मिट्ठू’
ऋषिकेश, उत्तराखंड
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कौन हो तुम …?
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जब मैं पढ़ रहा था कालिदास
पन्त और द्विवेदी को
तब समाज के उच्चवर्गीय,
बुद्धिजीवी लोग
अमीर खुशरो, मिर्जा गालिब
और शेक्सपियर को लेकर घूम रहे थे
मंचो में, पुस्तकालयों में, विरह में,
प्रेम, प्रसंग और व्यंग्य में
और न जाने कहाँ कहाँ..?
मेरी हिन्दी और उसके उपासक
अपनी ही भारतभूमि में
धूल से भरी चादर में मूर्छित हैं,
उधर ग़ालिब और खुशरो तालियां बटोरते रहे
इधर कालिदास की उपमाओं पर जाले लगते गये
भाषा पर हर किसी का अधिकार है लेकिन,
ये भी कहाँ तक ठीक है? कि
अपनी माँ का आँचल छोड़कर हम
दूसरी माँ के आँचल में लोरियाँ रटते रहे ..
हम न्यूटन-आइंस्टीन रटते गये,
और सुश्रुत-कणाद को भूलते गये
हमारी काव्यधारा में अलंकार कहाँ अब,
यहाँ तो नीरस बहता है शबाब
अब भरत के भारतवासी नहीं हम
फिरंगियों के इंडियन और बाबर के हिंदुस्तानी हैं
जिस किले के चार स्तम्भ थे हम
आज टुकड़ों में ही बंट गए…
हम स्वयं की पहचान कैसे बताये?
भाषा से, संस्कृति से, विज्ञान से..
या सैकड़ों वर्षों की परतंत्रता से..
यही प्रश्न है आपसे, मुझसे और सनातनियों से……
कौन हो तुम ?
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सर्वाधिकार सुरक्षित।
प्रकाशित…..18/12/2020
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