धर्मेंद्र उनियाल ‘धर्मी’ की कहानी … दोगलापन
धर्मेंद्र उनियाल ‘धर्मी’
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दोगलापन (कहानी)
बहुत सही है गुप्ता जी-सरकार ने जो ये निजीकरण का फैसला लिया है, बहुत सही है, सरकार ने सरकारी कर्मचारियों की हेकड़ी निकाल कर रख दी। गुप्ता जी ने तेज स्वर में अपनी बात पूरी की। परन्तु मेहता जी, गुप्ता जी ने अख़बार नीचे रखते हुए कहा-सरकारी कर्मचारियों की हेकड़ी से क्या मतलब है?
निजीकरण का फैसला मेरे हिसाब से तो हरगिज़ सही नहीं है। कुछ एक व्यक्तियों की गलती और हठधर्मिता के चलते सारे सरकारी कर्मचारियों को बदनाम करना सही नहीं है। अधिकतर कर्मचारी तो पूरे मनोयोग से अपनी सेवाएं करते हैं, जिनके बलबूते देश तरक्की कर रहा है। आपका सबको एक ही लाठी से हांकना सही नहीं है। गड़बड़ तो नेता करते हैं और करवाते भी नेता ही हैं।
मेहता जी बात पूरी होने से पहले ही बोल पड़े-अरे छोड़िए गुप्ता जी। बहुत चर्बी चढ़ गई थी सरकारी कर्मचारियों को, काम को टालने लगे थे, बस बैठे-बैठे मोटी तनख्वाह ले रहे थे और क्या? काम के नाम पर सब ज़ीरो। ऑफिस में आए दो-चार फाइलें इधर-उधर की, गपसप मारी, हो गई शाम और घर।
बहस की गुंजाइश को देखते हुए गुप्ता जी ने बात को समाप्त करने के लिहाज से कहा-ख़ैर छोड़िए हमें क्या हमे तो रोज़ आकर अपनी-अपनी दुकानें खोलनी है, सामान बेचना है और घर जाना है। बस वही रोज का, नोन, तैल, लकड़ी और क्या? भाड़ में जाए सब। और सुनाइए आपके बच्चे क्या कर रहे हैं? आजकल बेटा भी दुकान पर नहीं दिखता क्या कर रहा है वो?
गुप्ता जी ने गम्भीर होते हुए कहा-क्या करेगा मेहता जी? जैसे-तैसे बड़ी मुश्किलों से पैसे जोड़ जाड़कर बीटेक (सिविल) से करवाया था, पर आज भी बेरोजगार घूम रहा है। बीच में गुड़गांव एक कम्पनी में नौकरी मिली भी थी पर तनख़्वाह कम थी 17000 रूपली, उस पर कमरे का किराया, खाना रहना, आना-जाना, दवा-दारू, कपड़े-लत्ते, घर से 5000 रूपए और भेजने पड़ते थे।
मैंने एक साल बाद घर वापस बुलवा लिया। पहले-पहले तो इन्ट्रेस् एग्जाम भी दिए उसने, इधर-उधर मगर अब घर पर ही रहता है, एन्ट्रेंस एग्जाम की फीस, एक-एक फार्म हजार-हजार रूपए का, उस पर भी कभी तो पेपर लीक, कभी रिजल्ट में धांधली न जाने क्या-क्या ड्रामे थे।
सरकार तो अब कोई भर्ती निकाल भी नहीं रही है, तीस के आसपास का हो गया है, कई सालों से बेरोजगार घूम रहा है। मोहल्ले के पांच-सात बच्चों को ट्यूशन पढ़ा कर जेब खर्च निकाल रहा है, मुझे तो उसके भविष्य की चिंता है, कहीं सरकारी नौकरी में चिपक जाता तो उसकी तरफ से चिंता छुट जाती। उसके पीछे बबली भी जवान हो रही है। सत्ताइस की होने का आई, उसके लिए भी रिश्ते आने लगें हैं, बेटे की शादी तो एक-दो साल रूक कर भी हो जाएगी, पर बेटी की ज़िन्दगी का सवाल है मेहता जी, ऐसे ही किसी ऐरे गेरे के पल्ले से भी तो नहीं बांध सकते।
मेहता जी ने उनकी मनोदशा को समझते हुए एक मित्र और शुभचिंतक होने के नाते कहा- बंसल जी का बेटा है कहो तो बात चलाऊं? गुप्ता जी ने मुंह में कड़वाहट लाते हुए कहा -कौन बंसल वही कपड़े की दुकान वाले, अरे नहीं मेहता जी कपड़े की दुकान चलाने वाले से अपनी बेटी का विवाह करुंगा मैं? और फिर उनकी कौन सी अपनी दुकान है? किराए की दुकान है क्या भरोसा कल को बन्द करनी पड जाए? मेरी बेटी एमए, बीएड है। आज नहीं तो कल उसकी सरकारी नौकरी लग सकती है। तब सारे रिश्तेदार मेरे मुंह पर थूकेंगे कि सरकारी नौकरी वाली लड़की एक दुकानदार के पल्ले बांध दी।
मेहता जी मन ही मन इंसान के दोगले चरित्र पर विस्मयपूर्वक चिंतन कर रहे थे कि अभी पांच मिनट पहले जो व्यक्ति सरकारी के निजीकरण के फैसले को सही बता रहा था, वह अपने बच्चों के भविष्य के लिए क्या-क्या सपने संजोए बैठा है।
हर गरीब, मध्यम वर्गीय इंसान के मन में यही एकमात्र आस होती है कि यदि बच्चे पढ़ लिखकर कोई सरकारी सेवाओं के लिए आयोजित भर्ती परीक्षा निकाल लें, तो उनकी एक चिंता समाप्त हो जाएगी। बच्चों को पढ़ने के लिए प्रेरित किया जाता है। उनके मन में सरकारी नौकरी के सपने भरे जाते हैं। गरीब किसान, मजदूर, रिक्शेवाला, ठेलीवाला, अपने बच्चों के भविष्य के लिए, उनकी तरक्की के लिए बस एक ही आखरी उम्मीद रखते हैं ‘सरकारी नौकरी’। पर निजीकरण सब खा गया । अब सरकार ही सरकारी है, बाकी सब ग़ैर सरकारी है।