डॉ अलका अरोड़ा कहती हैं.. ये दिल की बस्ती है, धीरे धीरे बसती है
डॉ अलका अरोड़ा
प्रोफेसर, देहरादून
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विधा – गीत
पहचान गयी इस आहट को
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ये दिल की बस्ती है
धीरे-धीरे बसती है
गम से बोझिल है
फिर भी पूरी मस्ती है
ये दिल की बस्ती है
धीरे-धीरे बसती है।
टूट जाये जो दिल कभी
दर्द उमड़ता है
मिल जाये जो साथ किसी का
फिर से धड़कता है
धक-धक करे की आदत में
क्यूं पल-पल मरती है
ये दिल की बस्ती है
धीरे-धीरे बसती है
रोज निकलता नई राह पर
रोज ढूंढ़ता साथ नये
इस छोटे से घर में देखो
रहते परिंदे साथ कई
पहचान गयी है आहट को
तेरी ही हस्ती है
ये दिल की बस्ती है
धीरे-धीरे बसती है
जाने क्यूं देख मचलता है
पाने को देख तरसता है
शोले अंगारों से हरदम
ज्वाला सी धधकती है।
ये मछली तो नैनों से ही
जाल में फँसती है
ये दिल की मस्ती है
धीरे-धीरे बसती है।
