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डॉ अलका अरोड़ा की रचना.. सूखे दरख्तों के साये

डॉ अलका अरोड़ा
प्रोफेसर, देहरादून
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सूखे दरख्तों के साये
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ये जो हम में तुम में कुछ प्यार बाकी है कहीं
दो दिलों को बहलाने का बहाना तो नहीं
फासलों की अपनी भी जुबानें हुआ करती हैं
तेरे मेरे करीब आने का इशारा तो नहीं।

दिल जब भी धड़के, अफसाने बने, सुना था बहुत
पुराने खण्डहरो में दबे खजाने तो नहीं
तकलीफ में आराम मिला ना मिला सूकुं
आँसूओ में डूब जाने के ठिकाने तो नहीं।

फलक, ये जमीं, चाँद और तारे बैचेन हैं सभी
थकी साँसों के धड़क जाने का सबब तो नहीं
कहीं शोर, कहीं अलम, हकीकत कहीं है, कहीं भरम
दम,राहे वफा में, तोड़ जाने का खतरा तो नहीं।

ये पर्दा, ये हुस्न, ये नादानियाँ, सब धोखे की कहानी है
तेरी गलियों में भटक जाने का मतला तो नहीं
हवाऐं उड़ाती रही, चिलमन, रुख से बार बार
मेरी वफाओं को आजमाने की साजिश तो नहीं।

हम लुटे, लुटना ही था, ये तय था
ऐ सितमगर कहीं, तूने भी, गहरे जख्म खाये तो नहीं
हमें बरबाद करने की साजिश बेकार जायेगी
तूने वो नुस्खा हम पर अभी आजमाया ही नहीं।

हम तो मर जाते यूँ ही, क्यू कत्ल की साजिश की
तूने नज़रों से तीर वो चलाया ही नहीं
तू चाहे जिसे अपना, चाहे तो पराया कर दे
तेरी पनाह में बेगुनाह कोई आया ही नहीं।

तूने डाली ना वो निगाह जिसकी चाहत थी हमें
शरीफों के मकाँ मे तेरा ठिकाना ही नहीं
मैं हंसी, तू भी हँसा, ये दिल्लगी हुई
फंसे मैना कि शिकारी ने जाल ऐसा कभी बिछाया ही नहीं

आहत हूँ, तेरे आंसूओं से ही नहीं, तेरी मुस्कुराहट से भी
बात समझूं कभी इतने नजदीक पाया ही नहीं
टूटी मुडेरों पे धूल उड़ती रही अब भी कहीं
बीता वक्त लौट फकत आया ही नहीं।

आसमाँ की बुलन्दियाँ जमीं के होसलों पे भारी हुई
बेजान आईनों को तूने कभी चमकाया ही नहीं
तुम्हारे हर हुनर की दाद कैसे दे ये जमाना
भरी आँख से आँसू तूने चुराया ही नहीं।

मोती, नहीं बेशकीमती पत्थर की तरह
हाथ दर हाथ, शीशे सा दिल उछाला ही नहीं
हम तो मर जाएंगे, मिट जायेंगे होंगे फनाँ हर घड़ी तुझ पर
जाँ निसार का वो वादा सनम हमने अभी निभाया ही नहीं।

चली आंधियों से, टकराने मैं ,तूफाँ से कभी
ढलती जीवन साँझ को गले लगाया ही नहीं
खनकी कभी चूड़ी कभी झनकी पायल यूं भी
सूनी राहों पे हमने ये साज बजाया ही नहीं।

बेजार हुई मजारे यूँ गिरती दीवार सी
हाथ दुआ में तूने कभी उठाऐ ही नहीं
कहीं किसी फकीर का दामन सिला होता
सजदे में सर तूने कभी झुकाए ही नहीं।

हमें इन राहों से आवाजें अब भली नहीं लगती
चमन कभी फूलों के यहाँ महकाए ही नहीं
हवाऐं जब भी चली बेमौसमों की यहाँ
सूखी दरख्तों के सायो में गुल हमने कभी खिलाये ही नहीं।।

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