डॉ के. रानी, कहानी… टूटे रिश्ते
डॉ के. रानी
(डॉ कुसुम रानी नैथानी)
देहरादून, उत्तराखंड
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टूटे रिश्ते
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नीमो ताई बड़े ध्यान से ऊन के लच्छे की एक गांठ को खोलने में लगी हुई थी।
“लाओ ताई मैं इसे खोल देती हूं”
“ले खोल दे मुझे तो आंखों से ढंग से दिखाई भी नहीं दे रहा”
नीरु ने ताई के हाथ से ऊन का लच्छा ले लिया और गांठ को जोर लगाकर खोलने लग। ऊन का लच्छा सुलझाते हुए नीरु अपने मायके के बारे में सोचने लगी। ‘संबंधों की दुनिया कितनी उलझी हुई होती है, इन्हें लपेट कर गोले की तरह व्यवस्थित तो किया जा सकता है पर एक संबंध को दूसरे से जोड़ने के लिए ऊन की तरह गांठ लगाना जरुरी नहीं होता। यह तो बस अपने से लिपटता जाता है..’ सोचते हुए उसने जोर से धागा खीचा।
“नीरु आराम से.. इतनी जोर से खींचोगी तो गांठ कस जाएगी.. हो सकता है धागा ही टूट जाए”
ताई की बात सुनकर नीरु ने धागा ढीला छोड़ दिया.. धागे के ढीले पड़़ते ही नीरु को लगा उसके अंदर की उलझन भी कुछ कम हो गई है। ऊन के गोले को हाथ में लेकर उसे लपेटते हुए वह अतीत में उतरने लगी। परिवार मे बड़ी दी गीता और उसके बीच तीन भाई थे, उसके और दी के बीच पूरे ग्यारह वर्ष का अंतर था। उस जमाने में भी बाबू जी ने अपनी क्षमता से अधिक बच्चों की पढ़ाई पर ध्यान दिया था। दी के इंटर पास करते ही बड़ी बुआ रमा उसके लिए एक अच्छा रिश्ता लेकर आ गयी थी।
“सुनील तू बहुत भाग्यशाली है जो इतने अच्छे घर से गीता के लिए रिश्ता आया है”। “जीजी अभी गीता छोटी है”
“छोटी कहां है? पूरे सत्रह बरस की हो गई है। यह शादी की सही उम्र है। कह देती हूं ऐसा रिश्ता बार बार नहीं मिलता”
“मैं गीता की मां से भी पूछ लेता हूं।”
“वह क्या मुझसे ज्यादा जानती है रिश्तेदारी के बारे में।” बुआ रोष दिखाते हुए बोली तो सुनील चुप हो गए। मां ने हल्का सा विरोध जताया था।
“जीजी गीता पढ़ लिखकर अपने पैरों पर खड़ी हो जाती तो अच्छा था, आपको पता है दोनों की उम्र में बहुत अंतर है”
“लड़के की कहीं उम्र देखी जाती है? पांच बच्चों की मां बन गई हो चंपा पर तुम्हे समझ जरा भी नहीं है। लड़का अफसर है उसके लिए लड़कियों की कमी नहीं है। वह मेरे कहने पर वह मुश्किल से राजी हुआ है।”
बहुत सोच विचार कर अम्मा बाबूजी ने बुआ की बात मान ली थी, तुरंत दी की सगाई हो गई। चार माह बाद शादी भी धूमधाम से निबट गई। नीरु उस समय मात्र पांच साल की थी। मां का पल्लू थामें वह शादी की फोटो में कई जगह खड़ी थी। वह खुश थी उसे टॉफी खिलाने वाला एक आदमी और बढ़ गया है।
शादी के बाद गीता दी ससुराल की होकर रह गई। वह मायके बहुत कम आती, कभी अम्मां बुआ से शिकायत करती तो उल्टे उन्हें झिड़क देती-
“बेटी ससुराल में खुश है यही सोचकर संतोष कर लिया कर चंपा। बार-बार लड़की के मायके आने से कितना खर्च होता है यह पता है न तुम्हें? उसे देने को भी बहुत कुछ चाहिए।”
“अपनी सामर्थ्य के हिसाब से हम देते ही हैं जीजी”
यह सब उनकी हैसियत के सामने कुछ भी नहीं है। वह तो दामाद समझदार है जो तुम्हें जिल्लत से बचा लेता है।”
“आखिर क्या कमी है हमारी गीता में?”
“कमी गीता में नहीं उसके मायके में है, उसे बार-बार मायके बुलाने का ख्याल दिल से निकाल दो।”
चंपा मन मसोस कर रह गई। पहली बार गीता बड़े बेटे की पैदाइश के समय मायके आई थी, सभी खुश थे। नीरु तो छोटे से भांजे के पास से उठने का नाम ही नहीं लेती। यश के आ जाने पर नीरु अपने को बड़ा महसूस करने लगी थी।
बेटी का ब्याह कम उम्र में कर देने का मलाल बाबूजी को हर वक्त रहता। कभी-कभी बेटी को देखने के लिए वह तरस जाते, यदि बेटा बड़ा होता तो वह बेटी को लिवाने के लिए उसे भेज देते। समधन के तानों से बचने के लिए वह चाहकर भी बेटी के ससुराल जाने का साहस न जुटा पाते।
यश दो साल का हो गया था। गीता की गोद फिर भरने वाली थी, इस बार उसने ससुराल में ही अपने छोटे बेटे तरुण को जन्म दिया था। अम्मा बाबूजी औपचारिकता पूरी करने के लिए गीता के पास गए थे। वह खुश थे कि भगवान ने बेटी दामाद को मनचाही संतान दे दी थी। अम्मा गीता को अपने साथ लाना चाहती थी पर उसने आने से मना कर दिया।
“अम्मा यश और तरुण दोनों छोटे हैं, ऊपर से तीनों छोटे भाइयों के इम्तिहान सिर पर है। मैं फुरसत मिलने पर जाऊगी मायके।”
यह निश्चित था बच्चों के आ जाने से छोटे-भाई बहनों की पढ़ाई प्रभावित होती, मां सोचने लगी।
‘कितनी समझदार हो गई है गीता।’
अपने दोनों बेटों के साथ गीता गर्मियों में आई और एक महीना रहकर विदा हो गई। नीरु को कुछ-कुछ समझ आने लगा था। उम्र का अंतर अधिक होने के कारण वे एक-दूसरे से अपनी बातें साझा नहीं कर पाती। एक बार नीरु ने गीता के घर जाने की जिद की।
“अम्मा मैं दी के घर जाऊगी।”
“वहां जाकर क्या करोगी? कुछ दिनों बाद गीता खुद ही आ जाएगी”
“हर बार दी ही आती है, हम उनके घर क्यों नहीं जाते?” नीरू के प्रश्न पर अम्मा बाबूजी निरूत्तर हो गये थे। यह बात चंपा व सुनील अक्सर महसूस करते। दामाद ने उन्हें अपने घर आने का कभी निमंत्रण ही नहीं दिया तो बिन बुलाए वे वहां कैसे जाए?
दो बेटों के बाद दामाद जीवन को एक बेटी की चाह थी, उसके लिए कई बार उम्मीद जगी पर पूरी न हो सकी। तीन बार एबार्शन होने के कारण गीता का शरीर टूटने लगा था। बेटी के स्वास्थ्य के लिए चिंतित अंम्मा बाबूजी ने दामाद से अनुरोध किया-
“बेटा गीता को कुछ दिन के लिए मायके भेज दो।”
“बाबूजी यश व तरुण स्कूल जाने लगे हैं उन्हें कौन देखेगा?” जीवन बोले तो चंपा चुप हो गई।
बेटी को मायके बुलाकर चंपा अलग से समझाना चाहती थी।
‘बेटी भगवान ने तुम्हें इतने सुन्दर दो बेटे दिए हैं, एक बेटी की खातिर क्यों अपने शरीर को छलनी कर रही हो?’
वैसे गीता खुद भी समझदार थी। पति की इच्छा के आगे मजबूर होकर सबकुछ चुपचाप सह रही थी। स्थिति यह थी कि वह अपनी संवेदनाएं किसी से प्रकट तक न कर पाती। नीरू अब सत्रह साल की हो गई थी। दुनियादारी उसकी समझ में आने लगी थी। एक बार जीजू से जिद कर नीरू गीता को मायके ले आयी थी। छोटी बहन के गले लगकर गीता की आंखें भर आई।
“क्या हुआ दी?”
“कुछ नहीं यूं ही खुशी के मारे आंखें छलक आई।”
“तुम बहुत कमजोर हो गई हो दी।”
“मेरी तबीयत ठीक नहीं रहती, कमर में दर्द और बहुत सारी शिकायतें हैं।”
“क्या तुम्हें जीजू परेशान करते हैं?”
“नीरु तुम बहुत बड़ी-बड़ी बातें बनाने लगी हो।”
“दी इतनी कम उम्र में तुम कई बार गर्भवती हो चुकी हो। मैंने पढ़ा है बार-बार एबार्शन से कई बीमारियां हो जाती है, तुम्हें भी अपने स्वास्थ्य की परवाह करनी चाहिए।”
“मरना कोई नहीं चाहता नीरु, अपने बच्चों की खातिर सब सुख से जीना चाहते हैं।” लंबी सास खींचकर गीता बोली।
“मरे आपके दुश्मन दी, आप तो सबसे अच्छी हैं।”
“दी तुम जीजू को समझाओ ना।”
“क्या कहूं उनसे? जीवन का अनुभव मुझसे बहुत ज्यादा है, कुछ कहने में मुझे संकोच होता है, कहीं वे यह न समझ लें कि मैं उनकी सोच पर अंगुली उठा रही हूं। वही हुआ जिसका डर था, गीता को गर्भाशय में घाव की शिकायत हो गई थी और वह अक्सर बीमार रहने लगी।
देखते ही देखते नीरु ने बीए पास कर लिया, उसकी भी सुमित से सगाई तय हो गई। खुशी के मौके पर उस समय गीता मायके आयी थी। बीमारी के कारण वह बहुत कमजोर हो गई थी। लगता था इसके कारण वह अंदर से टूट गई है, नीरु की खुशी में शामिल होकर वह बहुत खुश थी।
“नीरु तुझे सुमित पसंद है ना”
“हां दी मैंने उनसे बात भी की है, वह बहुत अच्छे और खुले दिमाग के इंसान हैं। मुझे उम्मीद है वह मुझे बहुत खुश रखेंगे”
“तेरी ये इच्छा जरुर पूरी होगी नीरु।” गीता छोटी बहन को गले लगाते हुए बोली थी, सुमित के घरवालों ने पहले ही बता दिया था रोके के बाद शादी एक साल बाद होगी।
गीता के वापस ससुराल आने पर उसकी तबीयत बहुत खराब हो गई थी, वह गर्भाशय कैंसर की चपेट में आ गई थी। दिन प्रतिदिन उसकी तबियत खराब होती जा रही थी। आखिरी समय में अम्मा बाबूजी उसे मिलने गए थे, उसकी हालत देखी नहीं जा रही थी, उसका पूरा परिवार ही बिखर गया था। बहुत इलाज के बाद भी उसे बचाया न जा सका।
गीता के असमय निधन के कारण नीरु की शादी का उत्साह ठंडा पड़ गया था। शादी का एक माह शेष रह गया था और अभी तक कोई तैयारी नहीं हुई थी। घर पर ताऊजी और ताईजी ने अम्मा बाबूजी को समझाया। “हमारी बिटिया गीता के साथ बहुत बुरा हुआ, शायद ईश्वर को यही मंजूर था। अब अपने परिवार के अन्य सदस्यो की ओर भी देखो सुनील। दिल पर पत्थर रखकर उनके भविष्य की खातिर उठो। तुम्हें अगले माह नीरु की शादी करनी है” “भाई साहब क्या यह शादी अभी टाली नहीं जा सकती।”
“बेवकूफों जैसी बात मत करो सुनील। वह लड़के वाले हैं कितने दिन और रुकेंगे। लड़की की बात है जितनी जल्दी हो सके अपना फर्ज निभा दो।” बुझे मन से सुनील छोटी बिटिया की शादी की तैयारी में लग गये। गीता की तेरहवीं के अगले दिन जीवन यश को लेकर घर आए थे, उसे देखकर अम्मा बहुत रोई थी। “इन छोटे-छोटे बच्चों का अब क्या होगा? बिन मां के ये कैसे रहेंगे?”
“भगवान की इच्छा के आगे किसकी चली है जो होना था सो हो गया। अब इनकी किस्मत है यह कैसे रहते हैं?” जीवन बोला।
“तुम इन्हे यही हमारे पास छोड़ दो दामाद जी।”
“मैं भी इनके बगैर नहीं रह सकता, आखिर मेरा सहारा यही है। “जीवन बोले। नीरु पास खड़े होकर उनकी बातें सुन रही थी, तभी यश ने नीरू का हाथ पकड़ा और बोला- “मौसी तुम मेरी मम्मी बन जाओ ना।”
छोटे से बच्चे के मुंह से यह बात सुनकर अम्मा जैसे सातवे आसमान से नीचे गिर पड़ी, उसने एक नजर जीवन पर डाली। वह वह चुपचाप बैठा यश को देख रहा था उसके मुंह से इतनी बड़ी बात सुनकर भी उसने कोई भी प्रतिक्रिया नहीं दिखाई जैसे उसे कुछ सुनाई ना दिया हो। बेटे की बात पर उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई। चंपा वहां एक क्षण न रुक सकी, चाय बनाने के बहाने वह वहां से उठकर किचन में आ गई। इस समय उसकी सोच ने काम करना बंद कर दिया था।
‘क्या कोई इंसान इतना स्वार्थी हो सकता है। पत्नी की चिता की आग अभी ठंडी भी नहीं हुई थी और वह अपने से आधी उम्र की साली का हाथ मांगने चला आया था। जबकि, वह जानता है उसकी सगाई हो चुकी है और कुछ ही दिनों में शादी होने वाली है।’
बात की गहराई जानने के लिए कुछ देर बाद चंपा ने यश को अपनी गोद में बिठाया और प्यार से बोली- “यश तुम्हें यह बात मौसी के सामने नहीं कहनी चाहिए थी। वह तुमसे कुछ साल ही बड़ी है, तुम्हे यह ख्याल कैसे आया?”
“पापा ने कहा था कि मैं नानी के सामने यह बात कहूं।” “और क्या कहा था तुम्हारे पापा ने?”
“यही कि यह बात मेरे सोचने की थोड़ी है, यह तो नाना-नानी को सोचनी चाहिए। तुम्हारी नानी यदि तुम्हारे भला चाहती होगी तो नीरु मौसी को मम्मी की जगह इस घर में भेज देगी।” आगे चंपा कुछ पूछने की हिम्मत न कर सकी, वह यश को सीने से लगाकर बोली- “मुझे माफ कर दो, यह नहीं हो सकता।”
बेटी के भविष्य का प्रश्न न होता तो चंपा चुप रह जाती। उसे यह बात अंदर से कचोटे जा रही थी। दोपहर में दामाद को अकेला पाकर वह बोली- “दामाद जी हमारी बेटी गीता चली गई, अब तुम पर हमारी ओर से कोई बंदिश नहीं है। तुम जब चाहो दूसरा ब्याह कर सकते हो, अपनी खातिर न सही बच्चों की खातिर तुम्हें एक न एक दिन घर की देखभाल के लिए औरत की जरुरत पड़ेगी।”
“समझ नहीं आता अनजान औरत मेरे बच्चों के साथ कैसा व्यवहार करेगी?”
“शादी के बाद वह अंजान थोड़ी ही रह जाएगी। तुम समझदार हो, हमें उम्मीद है सब ठीक हो जाएगा।”
“क्या कोई इस घर का ही मेरे बच्चों की देखभाल नहीं कर सकता?” जीवन ने पूछा।
“अगर तुम्हारा इशारा नीरु की ओर है तो हमारी ओर से ना है। यह बात तुमने सोच भी कैसे ली? उसकी सगाई हो चुकी है उसके भी अपने सपने हैं और तुम्हारी लिए तो वह बेटी के बराबर है।”
“जैसी आपकी इच्छा।” कहकर जीवन उसी समय यश का हाथ पकड़कर वापस लौट आये। बाबूजी ने सुना तो वह सन्न रह गए। शाम को यश को न पाकर नीरु ने पूछा– “अम्मा जीजू और यश दिखाई नहीं दे रहे।”
“वापस चले गए।”
“इतनी जल्दी?” “उनके जाने में ही तेरी भलाई थी बेटी।” कहकर अम्मा ने नीरु को पूरी बात दी। नीरु को लगा जैसे किसी ने उसे आसमान से उठाकर धरती पर पटक दिया। गीता दी के निधन के तुरन्त बाद ही इस घर से जीजू नये रिश्ते की शुरुआत करना चाहते थे, उनके संबंध में उसी दिन एक गांठ पड़ गई थी। नीरु की शादी के अवसर पर न जीवन आए और न ही यश और तरुण। अम्मा जानती थी यह तो होना ही था। बिरादरी वालों ने बहुत बातें बनाई। अम्मा सबसे सच छुपा रही थी।
“बेचारा जीवन गीता की मौत का सदमे सह नहीं पा रहा है, तभी शादी में शामिल नही हुआ।”
नीरु सुमित के साथ बिदा हो गई थी, उसके ठीक एक महीने बाद जीवन ने सुधा के साथ दूसरा विवाह किया था। उम्मीद की हल्की सी किरण नीरु की शादी के साथ ही खत्म हो गई थी।
जीवन ने बहुत जल्दी अपने को नई गृहस्थी में ढाल लिया था। बच्चों ने भी नई मम्मी के स्वभाव के अनुरुप अपने को समायोजित कर लिया था। कहते हैं ना वक़्त सब कुछ अपनी हिसाब से साध लेता है। वही यहां पर सच साबित हो रहा था नाना-नानी के घर से उनका संबंध अब खत्म हो गया था। चंपा और सुनील का मन गीता के बच्चों के लिए बहुत तड़पता पर वे मजबूर थे। नीरु ने यश के लिए कई पत्र लिखे, कभी किसी का जवाब नहीं मिला। चंपा के आंखों में कभी गीता के बच्चों के लिए आंसू आ जाते तो सुनील उसे समझाते- “रोकर क्या होगा चंपा, दुआ करो वे जहां भी रहे सुखी रहे।”
वक्त के साथ गीता की यादें धुंधली पड़ने लगी। यश और तरुण अपनी जिंदगी में आगे बढ़कर इंजीनियर बन गये।
वर्षों बाद यश की शादी का कार्ड देख सुनील चौक पड़े, उन्हें अपनी बूढ़ी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ। चंपा ने एक नजर कार्ड पर और दूसरी सुनील पर डाली, वे अभी भी असमंजस में खड़े थे, बड़े बेटे विनय ने पूछा- “बाबूजी आप चलेंगे साथ में?”
“मैं वहां जाकर क्या करूंगा? तुम ही चले जाना।”
“मामा का फर्ज बनता है ऐसे मौके पर, शायद तभी उन्होंने तुम्हें याद किया है।”
अम्मा बाबू जी के कहने पर विनय शगुन लेकर शादी में शामिल हो गया था। अम्मा बाबूजी ने इतनी वर्षो बाद टूटे रिश्तो को जोड़ने के लिए अपनी ओर से बहुत सारा सामान भेजा था। विवाह समारोह में विनय एक अजनबी की तरह शामिल हुआ था, उसने बस अपने मामा होने का फर्ज निभाया। किसी ने उसके बारे में कोई उत्सुकता नहीं दिखाई। हां नई दीदी सुधा जरूर उसकी खाने पीने का ख्याल रख रही थी। वह बोली- “तुमने बहुत अच्छा किया जो भांजे की शादी में शामिल हो गये, आज गीता होती तो कितना खुश होती।”
विनय उनकी बातें सुनकर चुप ही रहा। यश ने भी कुछ औपचारिक बातें पूछकर अपने को और कामों में व्यस्त कर लिया। वर्षों से भांजो को मिलने की खुशी उनके ठंडे व्यवहार के कारण कहीं दूर छिटककर खड़ी हो गई थी। नीरु ने जब यह सब सुना तो बड़ी मायूस हुई।
“मुझे तो उन्होंने बुलाया नहीं।”
“ठीक ही किया वरना उनका पुराना घाव हरा हो जाता, उनकी इच्छा ठुकराकर हमने तुम्हारे साथ उनके सारे संबंध खत्म कर लिए थे। “चंपा बोली।
“अपने दुख से दुखी होकर उस समय शायद जीजू होश खो बैठे थे, अब सब ठीक हो गया है.अब कैसा गिला और शिकवा।”
“संबंध तोड़ना इतना आसान नहीं होता नीरु .. कोई भी रिश्ता बनाना सरल होता है उसे निभाना मुश्किल। रिश्तो की कड़वाहट जीवन हर सालती रहती है इसे न तो हम भूल सकते हैं न ही इनसे छूट सकते हैं।”
“मुझे वे भुला चुके हैं, कभी प्यार से पुकारने वाले जीजू हम सबके लिए कितने अजनबी हो गए हैं।”
“वह तो तुम्हें अपना सबकुछ सौंपना चाहते थे, उन्हें जीवनभर अपनी ही परवाह रही और किसी की भावनाओ, इज्जत और संबंधो का उनके जीवन में कोई मोल नहीं था।”
“अम्मा दुखी क्यों हो रही हो, जो वक्त उनके साथ गुजरा वह बहुत अच्छा था.. यही सोचकर संतोष कर लो। सच पूछो तो उनकी इच्छा का सम्मान न करके उनसे रिश्ता हमने तोड़ा है।”
“नीरु तू बहुत समझदार हो गई है। उनकी बातें उनके ही सिर मढकर एकदम हल्की हो गई। ” नीरु की बात पर मन हल्का करते हुए अम्मा बोली।
अक्सर गीता से जुड़ी यादें सबको वर्षों पीछे धकेलकर पुरानी आंगन में खड़ी कर देती। नीरु के दोनों बच्चे भी बड़े हो गए, वह खुद भी चालीस की उम्र पार कर गयी थी। घर.. परिवार व बच्चों के साथ उसका वक़्त आसानी से कट रहा था। एक दिन दोपहर में जीवन के साथ यश व तरुण को पूरे परिवार सहित अपने दरवाजे पर खड़ा देख उसे अपनी आंखों पर यकीन नहीं हुआ।
“मौसी अंदर आने को नहीं कहोगी?”
“हां आओ ना बाहर क्यो खड़े हो?” आठ लोगों के आने से कमरा भर गया। यश ने एक-एक करके सबसे परिचय करवाया वरना नीरु के लिए उन्हें पहचानना मुश्किल हो रहा था। उसे यहां सब स्वप्न सा लग रहा था। समझ नहीं आ रहा था बात की शुरुआत कहां से करें? यश के बेटे को पुचकारते वह बोली- “क्या नाम है तुम्हारा?” जवाब में जीवन बोले- ” दादी जी के पैर छुओ मोंटी।”
मौसी की स्थिति समझकर यश ने समझदारी से काम दिया और बोला- “हम सबको यहां देखकर आपको आश्चर्य हो रहा होगा मौसी।”
“हां हो तो रहा है, इसने वर्षो में पुराने संबंध समय के साथ पीछे छूट गये थे।”
“मम्मी के जाने के बाद बहुत कुछ खोया है हमने। पापा की तबीयत कुछ दिन पहले खराब हो गई थी। मेरी पत्नी मीना की दो बहने सुनीता और विधि आई हुई थी। उन्होंने पापा की बड़ी सेवा की। रात दिन मौसी के साथ रहने के कारण मोंटी ने पापा से पूछा- “दादाजी मेरी दो मौसी है.. पापा की मौसी कहां है।” उसके सवाल पर वे चुप हो गए। बस आंखों की कोरो से आंसू टपक पड़े। कहीं मन में दबी कोई भावना आहत हो गई थी। मोंटी को हाथ से बाहर ले जाने का इशारा कर जीवन बोले- “मुझसे कुछ ज्यादतियां हुई है जो मेरा पीछा नहीं छोड़ती।”
“ऐसा नहीं सोचते पापा।”
“सच तो सच है बेटा… मैं तुम्हारा और तुम्हारे ननिहाल वालों का दोषी हूं, अपने स्वार्थ के कारण मैं सबकुछ भूल गया था।”
“अभी भी देर नहीं हुई पापा, हम सबसे मिलकर सारी शिकायतें दूर कर सकते हैं।”
नीरू सोच रही थी कि देर से ही सही जीजू अपनी गलती का एहसास हो गया था, आज अपने घर पर सबको एक साथ देख के नीरु के सारे गिले-शिकवे दूर हो गये। यश और मीना की शादी में शामिल न होने की कसक नीरु ने इस समय पूरी कर दी। वह सभी के लिए बाजार से कपड़े खरीद कर लायी और बहू को मुह दिखाई में अंगूठी दी। दो दिन तक उसने सबको हाथों हाथ रखा, विदाई के समय नीरु की रुलाई फूट गयी।
“फिर आना यश और तरुण अपने परिवार के साथ।”
“मौसी अब आना जाना लगा ही रहेगा। हमारे प्रति अपने दिल में कोई मलाल नहीं रखना, गलती एक बार हो गई अब नहीं होगी।”
“भगवान तुम सबको सुखी रखे।”
जीवन अपने बेटे, बहू और पोते के साथ वापस चले गए। उनके जाते ही घर खाली हो गया। नीरु के आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। बार-बार गीता दी का चेहरा उसकी आंखों के आगे घूम रहा था, आज वह होती तो कितनी खुश होती। घर पहुंचकर यश ने फोन से सूचित भी कर दिया था। नीरु एकदम सामान्य हो गई थी, उसे अब किसी से कोई शिकायत नहीं थी। दो हफ्ते तक फोन का सिलसिला जारी रहा। जिंदगी पुरानी पटरी पर आ गयी.. कभी-कभी नीरु यश को फोन करके उनका हाल चाल पूछ लेती।
पूरे एक महीने बाद विनय का फोन आया था.. इधर-उधर की बातों के बाद नीरु ने जीजू के बारे में विस्तार से बताया तो विनय हस पड़ा।
“क्या हुआ? तुम्हें मेरी बातें मजाक लग रही है।”
“नहीं पर तुम बहुत भोली हो नीरु।” “ऐसी क्या बात हो गई भाइया?”
“तुम हर किसी पर बड़ी जल्दी विश्वास कर लेती हो.. तुम्हें क्या लगता है जीजू तुम्हारे पास बिना स्वार्थ के आये होगे?”
“मुझे तो ऐसा लगा सच में उन्हें अपने किए पर पश्चाताप है।”
“तुम उन पर विश्वास कर सकती हो मैं नहीं। अच्छा बताओ उन्होंने तुमसे बाबूजी की प्रापर्टी को लेकर कोई बात तो नहीं की नहीं।”
“मुझसे नहीं कहा पर हां सुमित से पूछ रहे थे नीरु को बाबूजी की प्रापर्टी मे हिस्सा मिला होगा।”
“सुमित ने क्या कहा?”
“जो सच था वही बताया। बाबूजी ने अपनी बेटियों की शादियां बड़ी धूमधाम से की थी, हमारे लिए इतना ही बहुत है। आखिर बाबूजी के पास था ही क्या? भाइयों को भी रहने के लिए छत चाहिए।” “अभी भी तुम्हें कुछ समझ नहीं आया।”
“मैं समझी थी कि उन्हें सच मे अपने किए पर दुख हुआ है।”
“दुख उन्हें होता है जिनके अंदर जज्बात होते हैं, जो केवल दिमाग से काम लेते हैं उन्हें दुख-सुख का ज्यादा अंतर पता नहीं चलता।”
“मुझे अभी तक यकीन नहीं हो रहा।”
“भविष्य में ध्यान रखना… टूटे रिश्ते को जब कोई लंबे समय बाद जोड़ना चाहता है तो उसके पीछे जरुर कोई कारण होता है।”
जीजू की पूरी कहानी उसके सामने आ गयी थी। हकीकत उसे मुंह चिढ़ा रही थी, अब कहने-सुनने को कुछ नहीं बचा था, तभी ऊन का लच्छा खत्म हो गया और उसका आखिरी छोर नीरु के हाथ में आ गया। उसके साथ ही नीरू यादों के भंवर से बाहर निकल आयी। रिश्तों की तरह लिपटा हुआ ऊन का गोला ताई को देकर वह चुपचाप वहां से उठ गई।
लेखक परिचय
डॉ के रानी
(डॉ कुसुम रानी नैथानी)
वर्ष 2020 मे प्रधानाचार्या पद से सेवानिवृत्त।
शिक्षण, समाज सेवा के साथ तीन दशक से बच्चों एवं व्यवस्कों के लिए प्रेरणादायक साहित्य व कहानी लेखन में सक्रिय। अध्यात्म में विशेष रुचि।
वर्ष 2015 में उत्तराखंड राज्य का सर्वोच्च शिक्षक सम्मान ‘शैलेश मटियानी शैक्षिक उत्कृष्टता पुरस्कार’ व 2016 में ‘राष्ट्रपति पुरस्कार’ से सम्मानित।
कोरोनाकाल में जिला प्रशासन देहरादून द्वारा समाजसेवा के लिए कोरोना योद्धा सेवा सम्मान से अलंकृत। साहित्य के लिए कई पुरस्कारों से सम्मानित।
विगत बारह वर्षों से बाल समाचार पत्र ‘बाल पक्ष’ का सफल संपादन। इनकी लिखी प्रेरणादायक कहानियां प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित।
अब तक चार बाल कहानी संग्रह व एक बाल उपन्यास प्रकाशित।
पता –
डॉ के रानी
(डॉ कुसुम रानी नैथानी)
माणी गृह, 318 ए ओंकार रोड
चुक्खुवाला देहरादून (उत्तराखंड)