कवि/शाइर जीके पिपिल की एक गजल
जीके पिपिल
देहरादून।

गज़ल
तुम्हारा दीदार तो क्या तुम्हारी तस्वीर को तरस गए
हम वो शिकार हैं जो शिकारी के तीर को तरस गए।
कभी तुम्हारी उल्फ़त की सारी सल्तनत हमारी रही
आज़ उसी सल्तनत की छोटी जागीर को तरस गए।
तुम्हारी बेरुखी की वज़ह कुछ समझ नहीं पाए हम
इस बेरुखी की हर मिसाल हर नज़ीर को तरस गए।
तेरी कशिश की गिरफ्त में ख़ुद ही आन पड़े थे हम
और हम ही तेरी मोहब्बत की ज़ंजीर को तरस गए।
तुमसे मोहब्बत करके भी हमको तो कुछ मिला नहीं
तेरी मोहब्बत में मोहब्बत की तासीर को तरस गए।
मेरे दिल में हिज़्र के दर्दों का सागर सा मचलता रहा
मग़र फ़िर भी नैना मेरे अश्कों के नीर को तरस गए।।
29082025
