हरीश कण्डवाल मनखी की कलम से… अब हम केवल कागजों में पहाड़ी रह गये
मूल निवास
गज्जू 12वीं पास करने के बाद पंजाब अपने मामा के साथ नौकरी की तलाश में चला गया था, कुछ दिन तक घर में ही रहा उसके बाद वहीं उसको एक ढाबे में नौकरी मिल गयी। शुरू में ढाबे वाले ने सर्विर्सिग पर रखा। गज्जू को सर्विसिंग से ज्यादा खाना बनाने का शौकीन था। लेकिन, मालिक के सामने कभी अपने शौक बता नहीं पाया। बड़ी मुश्किल से तो मामा ने होटल में चिपकाया था, यह भी छूट गया तो कहॉ जायेगा। घर में तीन भाई और दो बहिनें हैं। मॉ-बाप को खेती और पशुपालन का ही तो सहारा था। सालभर में दो गाय और एक बैल बिक जाते थे तो स्कूल की फीस चुकता की जाती थी। वह तो अच्छा था कि खाने के लिए अनाज खेती में हो जाता थां। मॉ और बहिनें तो नहाते वक्त साबुन की जगह कभी काले और मोती साबुन से सिर धो लेते थे, जब सिर ज्यादा चिपचिपा (जिसको स्थानीय भाषा में लीसू कहते हैं) हो जाता था तब वह भीमल के रेशे निकालकर उसको पानी में भिगोकर सिरसळू से अपने बालों को धोते थे। मिट्टी तेल और चीनी, चाय-पत्ती मॉ घी बेचकर मॅगवा लेती थी।
गरीबी के दिन गज्जू ने देखे थे। स्कूल भी बेचारा एक जोड़ी स्कूली गणवेश में गया, पैरों ने पैरोगॉन के चप्पल के अलावा कभी कुछ देखा नहीं था, पंजाब भी अपने मामा के साथ पैरोगॉन चप्पल और पैंट कमीज पहनकर आया था जो उसने दो साल पहले अपने ताउजी के बेटे की शादी के लिए सिलवाये थे। इन सब बातें उसके जेहन में आते ही वह मन को पक्का करके फिर वैटर का काम तल्लीनता से करने लगता। समय बीतता गया गज्जू की ईमानदारी और मेहनत ने उसे वैटर के बाद तंदूर पर काम मिल गया। तंदूर पर पूरे दिन शरीर को तपाता रहता पसीने के बूंदे कभी-कभी माथे से लुड़कते हुए हृदय स्थल पर रूककर गज्जू की मन को झिंझोडती और कहती कि गज्जू इतना पसीना अपनी मिट्टी में बहाया होता तो खेती सोना उगलती। वहीं, दूसरा मन कहता कि यदि खेती सोना ही उगलती तो आज उसके मॉ-बाप सबसे ज्यादा अमीर होते। क्योंकि, वह तो दिन भर खेती और मिट्टी में ही सने रहते हैं, युवा अवस्था जोश और जूनून की होती है, फिर वह कुछ पल हताश होकर फिर काम में लग जाता था।
ईधर, मामा नौकरी दुकान में करते थे, तब 3000 हजार रूपये मिलते थे, उसमें से कमरे का किराया और घर का खर्चा अलग था। महीने के 1000 रूपये घर मनीआर्डर कर देते थे। गज्जू तो तीनों समय का खाना ढाबे में खा लेता था। मामा अपने लिए अक्सर रात को दाल-चावल बनाते और खाकर सो जाते। समय के पॉव और उम्र पर कौन जंजीर बॉध सका है। ढाबे का खाना खाकर गज्जू मोटा तगड़ा हो गया। ढाबा में खाने-पीने के लिए हो जाता और रात खोली में मामा के साथ कट जाती। यह तो अच्छा था कि गज्जू पर कोई ऐब नहीं था, कभी-कभी महीने दो महीने में मामा के साथ सिनेमा हॉल शनि देवल की पिक्चर देखने चले जाता।
घर में बहिनें बड़ी हो गयी थी, उनके रिश्ते के बात चलने लगी। एक-एक करके दोनो बहनों की शादी हो गयी। फिर गज्जू के लिए भी गॉव की एक सुंदर लड़की देख ली और गज्जू को भी शादी के बंधन में बॉध लिया गया। दो साल बाद गज्जू ने अपने लिए पंजाब में कमरा अलग ले लिया। ईधर, ढाबे के मालिक ने ढाबे की जगह होटल (तिमंजिला भवन) बना दिया। गज्जू अब होटल का और मालिक का सबसे खास हो गया। अब तनख्वा भी अच्छी हो गयी। अनुभव और मेहनत ने उसे अब गज्जू से गजेन्द्र बना दिया।
गज्जू के दो बच्चे हो गये, जब तक बच्चे छोटे थे तो गॉव आना-जाना लगा रहताके बड़ी कक्षाओं में जैसे-जैसे बच्चों ने प्रवेश लेना शुरू किया गज्जू का घर जाना कम होता गया। बड़ी वाली बेटी ने 12वीं पास लिया था और बेटा 10वीं में था। मध्यम वर्ग के लिए सरकारी नौकरी ज्यादा सुरक्षित होती हैं। गज्जू ने सोचा कि चलो अब बच्चों का मूल निवास बना लेते हैं। गॉव में फोन किया और मूल निवास बनाने की प्रक्रिया का पता लगाया। पटवारी से बात हुयी, खाता-खतौनी का पता लगाया, तो जानकारी मिली कि 15 साल से दाखिल खारीज ही नहीं हुआ। चार दिन की छुट्टी लेकर गज्जू गॉव आया, सब काम निपटाकर मूल निवास के लिए आवेदन करके वापस पंजाब चला गया।
तीन महीने हो गये मूल निवास नहीं बना, फिर पता किया तो मालूम हुआ कि अभी तक वह लंबित पड़ा है, ले-देकर बड़ी मुश्किल से मूल निवास बन गया। ईधर उत्तराखण्ड में नर्सिग कोर्स में प्रवेश के लिए फार्म आये गज्जू के बेटी ने फॉर्म भर लिया। लड़की पढने लिखने में होशियार थी तो उसने नर्सिग परीक्षा में अच्छी रैंक लेकर आ गयी। वह एडमिशन के लिए देहरादून के नर्सिग कॉलेज आ गयी। कॉलेज मेंं उत्तराखण्ड के मूल निवासी ज्यादा काम करते थे, वहॉ पर जो बाबू एडमिशन लेता वह मूल निवास जरूर ध्यान से देखता और उनसे उसी हिसाब से बातचीत करके गॉव गलियारों के बारे में पूछ लेता।
गज्जू की बेटी को जब उसके गॉव के बारे में पूछा और कहा कि तुम कभी गये हो अपने गॉव में, उसने सिर हिलाकर कहा कि हॉ बचपन में गये थे एक-दो बार उसके बाद नहीं गये। बाबू ने पूछा कि गॉव कहॉ है तो उसने कहा कि चमोली में कर्णप्रयाग से आगे जिलोटी गॉव है। लेकिन, मैनें भी मूल निवास में ही अपने गॉव का नाम ढंग से पढा और समझा। बाबू के पास ऐसे मामले बहुत आते थे कि मूल निवास गॉव का है और बच्चों को गॉव का अता-पता नही। तब वह कहता कि यार हम केवल अब कागजों के पहाड़ी रह गये, न हमें बोलना आता है, न हम कभी अपने गॉव गये, न हमको रीति-रीवाजों का पता, न देवी-देवताओं का पता। इतने में गज्जू भी अंदर कक्ष में आ गया। बाबू को वह पहचानता था, उसने कहा अरे सुनील भाई तुम यहॉ। सुनील बाबू ने कहा जी आप यहॉ कैसे, उसने कहा कि यह मेरी बेटी है सोनाली। वह तो मैनें इसके मूल निवास में देख लिया था, ये बताओ कि तुम कब से परिवार सहित गॉव नहीं गये, इस बिटीया की गलती नहीं है, गलती तुम्हारी है, जो तुम इनको गॉव दिखाने नहीं ले गये। हर साल यहॉ पर बच्चे आते हैं, जिसमें से 5 से बच्चे ऐसे होते हैं जो कहते हैं कि मेरे पापा ने बताया कि हमारा गॉव पौड़ी, टिहरी, अल्मोड़ा में है, बस हाथों से इशारा करते हैं कि उधर से वो रोड़ जाती हैं न उसके आस-पास है।
गज्जू भाई जी आप कभी अपने देवी-देवता पूजने भी नहीं गये, अगर नहीं गये तो इस बार जाना और इस बिटीया को भी ले जाना, यहॉ से छुट्टी जाने के लिए मैं प्रबंधन से बात कर लूंगा। लेकिन, इनको गॉव लेकर आते-जाते रहना। उसके बाद सोनाली ने भी कहा कि सर अभी आप मेरा एडमिशन कर दो, इस पर गज्जू ने कहा कि वैसे रिश्ते में मैं आपका चाचा लगता हूॅ। उसके बाद गज्जू ने बिटीया को छात्रावास में भेज दिया और रात की गाड़ी से जब वह वापस लौट रहा था तो सुनील बाबू के शब्द उसके कानों में गूज रहे थे। वह छटपटा रहा था कि वास्वत में हम लोग नौकरी और कमाने के चक्कर में कभी अपनी मातृभूमि को नहीं समझ पाये, उसने सोच लिया था कि इस बार दिवाली वह गॉव में परिवार सहित मनाने जायेगे, इन्हीं बातों को सोचते-सोचते गज्जू की ऑख लग गयी।
©®@हरीश कण्डवाल मनखी की कलम से।