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पुस्तक समीक्षा.. ‘काऽरि तु कबि न हाऽरि’… समीक्षक डॉ. नंदकिशोर हटवाल

‘काऽरि तु कबि न हाऽरि’
शैक्षिक और सामाजिक इतिहास की झलक दिखाती एक जीवनी

-डॉ. नंद किशोर हटवाल
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पुस्तक का नाम: ‘काऽरि तु कबि ना हाऽरि’
प्रकार: स्व. मुकुन्द राम रयाल की जीवनी
लेखक का नाम: ललितमोहन रयाल
समीक्षक : डॉ. नंद किशोर हटवाल
प्रकाशक : काव्यांश प्रकाशन, वरिष्ठ सदन, 72 रेलवे रोड़, ऋषिकेश, (देहरादून) उत्तराखण्ड-247210
पृ.सं.: 263
मूल्य: 195
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‘…तब इलाके में वधू-मूल्य चुकाने का चलन था। लड़के वाले कन्या पक्ष को नगदी में चांदी के कळदार तो देते ही थे, ऊपर से खुशामदें भी करते थे। वधू के पिता से चिरौरी करते, ‘‘मेरा लड़का तो सरकारी नौकरी में है। इतना जुल्म न करो। थोड़ा गम खाओ।’’
‘‘…सास चौबीसों घण्टे बहुओं पर चौकसी रखती थीं। वे घास लकड़ी को जंगल जाती तो मुखबिर बनाकर अविवाहित ननद को साथ भेजती, जो लौटकर सारा ब्यौरा रिपोर्ट करती। बहुओं के साथ मोटा बर्ताव होता तो खाने को अनाज भी मोटा ही मिलता।…’’

‘‘…हस्तलेख पर उनका बड़ा जोर रहता। फाउंटेन पेन को हस्तलेख का सबसे बड़ा दुश्मन मानते थे। विद्यार्थियों के नरकट के नोक की तिरछी कटिंग अपने जेबी चाकू से करते थे। स्टेशनरी पर खर्चे को अपव्यय मानते। एडमिशन के दिन ही गार्जियन से कहते, ‘‘दो-तीन स्लेट ले आना जो सालों साल चले।…’’
ये ब्यौरे ललित मोहन रयाल द्वारा लिखित पुस्तक मुकुन्द राम रयाल की जीवनी ‘काऽरि तु कबि न हाऽरि’ से उद्धृत हैं। नायक का जीवन काल 1935-2020 था और वे शिक्षक थे। शिक्षक के रूप में उनका सेवाकाल 1960 से 1996 रहा।

जीवनी ‘बड़े लोगों’ की लिखी जाती है। सुप्रसिद्ध लोगों की। छोटे-मोटे लोगों की क्या जीवनी होती है! उनका जीवन होता ही क्या है? रोजी-रोटी के लिए संघर्ष, जीवित रहने और परिवार को पालने की जद्दोजहद। न कोई बड़ी अभिलाषा न महत्वाकांक्षा। जीवन में न कोई सनसनी, न रहस्य और रोमांच। न कोई नाटकीयता, न बड़ा भारी टर्निंग प्वांईट, न कोई बहुत बड़ा घटनाक्रम। अरबों की जनसंख्या वाली इस दुनिया में जीने वाले आम आदमियों का सा सादा, सपाट, सरल और सीधी रेखा में चलने वाला जीवन।
और यही इस जीवनी की खूबसूरती है।

नायक मुकुन्द राम रयाल का जन्म टिहरी जिले की दोगी पट्टी में हुआ। पिता का नाम नारायण दत्त रयाल था। मुकुन्द राम आगे पढ़ना चाहते थे। लेकिन, कक्षा 3 के बाद उनका स्कूल छूट गया और वे परम्परागत पंडिताई करने लगे। पंडिताई को वे दिल में नहीं उतार पाये। एक दिन किसी बात पर पिता की डांट पड़ी तो घर छोड़ कर निकल पड़े।

बचपन, शिक्षा और तत्कालीन शिक्षा की तस्वीर

ऋषिकेश पहुंचे। वहां एक बंगाली साधु ने शरण दी। काम मिला मंदिर में पूजा का। तीन साल गुजर गए। साधु ने बच्चे की पढ़ने की ललक देखी और प्रोत्साहित किया। अठन्नी में हाफ पैंट बेच कर टिहरी से व्यक्तिगत परिक्षार्थी का फार्म भरा। गणित ने परेशान किया पर इक्कीस साल की उम्र में जैसे-तैसे कक्षा आठ की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। गणित में लस्टम-पस्टम पास हुए। उसके बाद डिवाइन लाइफ सोसाइटी के प्रेस में कम्पोजर सहायक हो गए। अब प्रूफ रीडिंग करने लगे। दसवीं की परीक्षा में दो बार फेल हुए। फौज में भर्ती होने के लिए जगत राम भाई के साथ लाइन पर खड़े भी हुए पर ‘‘लठ्ठी जगतराम भैय्याक भट्यूड़ पर चूबिग्ये। वे थैं चड्दु छै चैम्म गुस्सा। वैन हवलदार पर द्वी रपट लगै दिनिन। कैकि भर्ति कैकि दौड़। मुठ्यों पर थूक लगैक भागण पड़ी।’’

उस दौर में बच्चे शिक्षा के लिए बहुत संघर्ष करते थे। आगे न पढ़ पाना, पढ़ाई का बीच में छूट जाना आम बात थी। बालक मुकुन्द राम ने छूटी हुई पढ़ाई को जारी रखा। यह इस साधारण से जीवनी नायक की असाधारण जिजीविषा थी। जंगल से लकड़ियां बीन कर लाना, सेवा, बेगारी, ताड़ना, भूख, सब कुछ सह कर शिक्षा प्राप्त करने के उस दौर के संघर्षों के विवरण इस जीवनी में आये हैं। जीवनी नायक ने आगे मध्यमा-विशारद की राह पकड़ी। साहित्य सम्मेलन प्रयाग की परीक्षाएं पास की। बालक मुकुन्दराम की शिक्षा को प्राप्त करने की छटपटाहट बहुत बारीकी और संवेदनशीलता के साथ इस पुस्तक में वर्णित है।

नायक एक शिक्षक थे इसलिए इस जीवनी में उस दौर की शिक्षा और शिक्षक की भूमिका का विस्तार दिखता है। प्रथम नियुक्ति स्थल मठियानी गांव आज भी शिक्षा विभाग में दुर्गम की सूची में है। इस हिमालयी राज्य के संदर्भ में हम देखते हैं कि आज दूर-दराजों की शिक्षा व्यवस्था को बनाये रखना हमारी सरकारों के लिए एक चुनौती बनी है। पुस्तक में हमें उस दौर की शिक्षा की एक तस्वीर दिखती है, ‘‘…वर्णमाला के अक्षर सिखाये जाते थे। फिर बारहखड़ी। अंकों के ज्ञान के लिए सस्वर अभ्यास पर ज्यादा जोर रहता था। गिनती, पहाड़ा, पौवा, आधा, पौना, सवैया, ढैया, औंचा, ढौंचा, पौंचा का सस्वर वाचन करना होता। इमला और श्रुतलेख लिखाये जाते। रहीम, कबीर पढ़ाते हुए गंवई भाषा में नीति की बातें समझाई जाती।’’ पुस्तक में उस दौर के पाठ्यक्रम का रिव्यू, शिक्षा, समाज और कृषि के अंतर्सम्बन्धों की पड़ताल और शिक्षण पद्धतियों का इतिहास दर्ज हुआ है, ‘‘फसल की बुवाई और कटाई के समय विद्यार्थी छुट्टी लेते। अभिभाक सीधे सरल किसान होते। नाम दर्ज करने आते तो जन्म तिथि और घरेलू नामों को सही करने की जिम्मेदारी भी अध्यापक की होती। जैसे-बग्थौरू का बख्तावर सिंह। मंगतू का मंगलेश या मंगल सिंह।’’

स्लेट पर लिखना, किताबों के बीच मोरपंख, सीही के कांटे रखना, स्याही का महत्व, उदार में ‘डोब्बा’ मांगना, स्याही का उलट जाना जैसे महीन ब्यौरे पाठकों को उस दौर के स्कूलों की याद दिलाने के लिए काफी हैं। ‘‘…अपने जीवन में शिक्षा के अभाव से उन्हांने छानियों में स्कूल चलाई, पेड़ों के नीचे क्लास लगाई। शिक्षा के लिए अपनी जिंदगी में जो छटपटाहट देखी थी वैसी वो बच्चों को नहीं दिखाना चाहते थे।’’ जीवनी नायक का यह वैयक्तिक सच आज भी एक सामाजिक सच्चाई का रूप है। नायक के अध्यापकीय जीवन की तस्वीर वस्तुतः दूर दराज की शिक्षा व्यवस्था की एक पूरी तस्वीर है। जीवनी का यह विवरण व्यष्टि से प्रारम्भ हो कर समष्टि तक पहुंचता है। जीवनी नायक की स्कूली शिक्षा पर की गई टिप्पणी, ‘‘यू ल्वोखर कु डौलु च। अजौ औजार कख बणि?’’ आज की शिक्षा पर की गई एक कारगर टिप्पणी है। जीवनी नायक शिक्षक का खड़कमाफी आकर दो कमरों का टीन शेड खड़ा करना, सलेक्सन ग्रेड के बाद कोठरी किचन, चौथे वेतन आयोग के बाद बरामदा और एरियर मिलने के बाद प्लास्टर कराना, किस्तों में काम होना आदि विवरण एक शिक्षक की घर तैयार करने के संघर्षां और आर्थिक दशा को बताने के लिए काफी हैं।

साइको सोमेटिक उपचार
बीमारियां और उनके उपचार की परम्पराएं शदियों से चली आ रही हैं। आधुनिक चिकित्सा पद्धतियों से पूर्व दुनियां के सभी समाजों की चिकित्सा की अपनी-अपनी परम्परागत प्रणाली रही हैं। उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों में भी चिकित्सा की कुछ परम्परागत पद्धतियां थी। कुछ वैज्ञानिक तो कई अवैज्ञानिक भी। इस जीवनी में परम्परागत उपचार की तत्कालीन स्थितियों के महत्वपूर्ण विवरण दिये गए हैं। जीवनी के बहाने पर्वतीय क्षेत्रों में साइको सोमेटिक बीमारियों के पीछे के कारणों और इसके निदानो के विस्तृत व्यौरे हैं। यह व्यौरे साइको सोमेटिक उपचार परम्परा की तत्कालीन जरूरतें, खूबियों और खतरों के संकेतों के साथ हैं। उस दौर में शिक्षक अपने समाज का स्वास्थ्यकर्मी, पथप्रदर्शक और संकटमोचक की भूमिका में भी होता। शिक्षा विभाग में नियुक्ति के बाद जीवनी नायक को इन सर्विस टै्रनिंग एचटीसी (हिंदुस्तान टीचिंग सार्टिफिकेट) का अवसर मिला। चूंकि मुकुन्द राम की पूरी शिक्षा व्यक्तिगत परीक्षार्थी के रूप में प्राप्त की थी अतः लम्बे समय बाद संस्थागत रूप से शिक्षा प्राप्त करने ये मौका उनके लिए खास था। लेकिन वहां उन्हें फालिज का गहरा अटैक पड़ा। वैद्य और हकीमों से इलाज करवाया। कबूतर का मांस, सुस्रुत की अग्निकर्म चिकित्सा करवायी। रूई के फाहे को खौलते घी और औषधियों में डुबो कर पीठ दागी जाती। पीठ पर घाव हुए। पीठ के बल नहीं सो पाते, पेट के बल सोते। पर तात्कालिक लाभ मिला।सिर्फ साइको सोमेटिक उपचार ही नहीं बल्कि जीवनी नायक की बीमारी के उपचार के ब्यौरों को हम पर्वतीय चिकित्सा परम्पराओं के इतिहास के रूप में भी देख सकते हैं।

लैंगिक भेदभाव और पहाड़ी स्त्रियां
यूं तो दुनियां में होने वाले लैंगिक भेद-भाव पर चर्चा होती रहती है। पुरूष प्रधान दुनियां में स्त्रियों पर होने वाले कुछ जुल्म एक जैसे हैं। लेकिन, स्त्रियों को लेकर कुछ पूर्वधारणाएं, कुप्रथाएं, समस्याए, शोषण देश, धर्म-सम्प्रदाय, समाजों, आर्थिक वर्गों और क्षेत्रों के हिसाब से बहुत अगल-अलग भी होती हैं। इन लैंगिक अन्यायों और शोषणों के विविध रूप होते हैं। ये चिह्नित नहीं हो पाते। और अगर होते भी हैं तो यह चिह्नांकन मौखिक होता है। कहीं दर्ज नहीं होते। इनका दस्तावेजीकरण नहीं हो पाता। मौखिक किस्सों के रूप में पीढ़ियों की स्मृतियों में रहते हैं। स्मृतियों के साथ इन भेदभावों की गाथा भी मंद पड़ जाती हैं। दूरस्त दुर्गम भूगोल में जीवन यापन करने वाली आधी दुनियां जीवन जीने की छोटी-छोटी चुनौतियों में इतनी डूबी होती है कि अपने खिलाफ हो रहे अन्याय के प्रतिरोध तक पहुंच ही नहीं पाती हैं। उनके संघार्षा और दुश्वारियों की गाथाएं उन्हीं के साथ दफन हो जाती हैं।

इस जीवनी के बहाने तत्कालीन पहाड़ी स्त्रियों के संघर्ष, दुश्वारियां, बहुओं के साथ अन्याय, संयुक्त परिवारों के विवरण और चुनौतियां, बहुओं की भूख और भूख से निजात पाने के लिए उनके संघर्ष दर्ज हुए हैं। पुस्तक में स्त्रियों की जीवटता और खुद्दारी भी दिखती है। जीवनीकार लिखते हैं, ‘‘पत्नी नेक थी। दोचार खरी-खोटी सुनाने से बाज नहीं आती थी। हर बार मोर्चा लेती थी। एक एक की खबर लेती। मनोबल ऊंचा था। थकने-टूटने तक परिश्रम करती थी।’’ कथानायक की पत्नी की जमीन के बंटवारे और स्वजनो के अन्याय के विरूद्ध ललकार, ‘‘पुंगड़ मा खुट्टू धैरि त गिंडै द्योलु।’’ अन्याय के खिलाफ पहाड़ी स्त्रियों की प्रतिनिधि ललकार है। इसे हम तमाम उलट स्थितियों के खिलाफ स्त्रियों द्वारा की जाने वाली मुठभेड़ के रूप में भी देख सकते हैं। देवानंद साहूकार से ब्याज पर ऋण लेकर खड़कमाफी में जमीन खरीदने के बाद कथानायक की पत्नी का फरमान, ‘‘कम पुंगड़ मा मैन नि बैठण। जब तलक जिमदारू कन्न लैक पुंगड़ि-पाटलि नि होलि, मै यख बटिन नि हलकण्या।’’ वैयक्तिक न होकर पहाड़ी स्त्रियों के अन्तर्मन की सामुहिम उथल-पुथल का प्रतिविम्ब है। यह खेत-खलिहानों, कृषि और श्रम के प्रति प्रेम और श्रद्धा का एक रूप है।

समीक्ष्य पुस्तक में जीवनी नायक के विवाह के बहाने विवाह की परम्पराओं और उसमें स्त्रियों की स्थितियों की तस्वीर भी स्पष्ट हुई हैं। माघ संवत् 2017 में मुकुन्द राम रयाल का विवाह हुआ। इस बहाने विवाह के रीति-रिवाज और समाजिक परम्पराओं पर विस्तार से लिखा गया है। कैसे बारात जंगलों को पार कर कई दिन चलने के बाद दुल्हन के घर पहुंचती थी। विवाहों में होने वाले विवाद, वधू मूल्य, विवाह पद्धतियां, मांगण-जांगण, दुल्हन के लिए किये जाने वाले संघर्ष, बहू को कामगार समझना, विवाह के अवसरों पर होने वाले लेनदेन की चर्चा हुई है। यथा ‘‘पण्डिजी पांच सौ कलदार भौत होंदन भाई। कुछ त कम करा। तुमारि नौनिक त भाग छन खुलणा। ठाठ सि रौलि। म्यार नौन्याल त पट्वारि छ। रूप्या-पैसों कि क्वी कमि नी।’’

खेती और पशुधन

‘‘सबके घरों में खूब जानवर होते थे। बैल बुजुर्ग हो जाता तब भी उसके गले में खांकर लगाना नहीं भूलते थे। उसकी पुरानी आन-बान कायम रखने के लिए सींग चमाचम चमकाए रखते थे।’’ पहाड़ की खेती और पशुपालन के काफी दिलचस्प ब्यौरे इस जीवनी में दिये गए हैं। जानवरों के साथ इंसानी रिश्तों, बच्चों का जानवरों से लगाव, कृषि और पशुपालन के अंतर्संबंधों और पशुओं के प्रति समाज के नजरिये और मूल्यों के विवरण पूरी संवेदना के साथ दिये हैं। नीला और बुल्ला बैलों का विवरण, जंगलों में पशुचारण, बैलों की लड़ाई के प्रसंग तो बहुत ही रोचक और शानदार है। रोपाई, पानी लगाना, पानी के लिए संघर्ष और ‘‘घर मा क्वी मरदारा च ह्वयूं। एक-द्वी दिन कू मैमान च’’ जैसी मानवीय चकडै़ती और बहानेबाजियां किसी यथार्थ की जमीन पर बुने औपन्यासिक कृति का सा एहसास कराती हैं।

उत्तराखण्ड में जीवनी साहित्य
उत्तराखण्ड के संदर्भ में यदि हम आत्मकथा से इतर जीवनी साहित्य की बात करें, तो यहां पर जीवनियां ज्यादा नहीं लिखी गई हैं। शेखर पाठक द्वारा नैनसिंह रावत के जीवन पर लिखित ग्रंथ ‘ऐशिया की पीठ पर’ बेहद महत्वपूर्ण जीवनी साहित्य है। बाद में यह पुस्तक नेशनल बुक ट्रस्ट से ‘पंडितों का पंडित’ नाम से भी छपी। दुर्गाचरण काला द्वारा जिम कार्बेट और पहाड़ी विल्सन की जीवनी, शिवराज सिंह रावत और राहुल सांकृत्यायन द्वारा चन्द्र सिंह गढ़वाली की जीवनी, गोरा साधु, नाम से प्रकाश थपलियाल लिखित जिम कार्बेट की जीवनी, ‘हिमालय में गांधी के सिपाही’ सुन्दर लाल बहुगुणा की जीवनी (ले. खड़क सिंह वाल्दिया) ‘एक तारो दूर चलक्यो’ भानुराम सुकोटी की रचनाएं और जीवन परिचय (ले. अनिल कार्की) को भी इस श्रेणी में रखा जा सकता है। उत्तराखण्ड में कुछ राजनीतिक व्यक्तियों की भी जीवनी लिखी गई हैं जिनमें गोविन्दबल्लभ पंत, हेमवती नंदन बहुगुणा, नारायण दत्त तिवारी और त्रिवेन्द्र रावत की जीवनी की भी जानकारियां हैं। यह सूची लम्बी भी हो सकती है।

गढ़वाल की दिवंगत विभूतियां (डॉ. भक्त दर्शन), समय-समय निकलने वाली पत्रिकाओं के व्यक्ति विशेष पर केन्द्रित अंक, यथा-पहाड़ के शैलेश मटियानी और गिर्दा, लोकगंगा का विद्यासागर नौटियाल पर केन्दित अंकों तथा व्यक्तियों पर केन्द्रित विभिन्न प्रकार के समृति ग्रंथों को इस श्रेणी में रखा जा सकता है।

पुत्र द्वारा पिता की जीवनियां
पुत्र द्वारा लिखी गई पिता की जीवनियों में धनपतराय द्वारा लिखित प्रेमचंद की जीवनी और गोपालन द्वारा लिखित सर्वपल्ली राधाकृष्णनन् की जीवनी प्रमुख है। उत्तराखण्ड में गिरीश बडोनी ने अपने पिता पर लिखी संक्षिप्त संस्मरणात्म पुस्तिका ‘बाबाजी की यादें’ और बिहारी लाल जी द्वारा अपने पिता की जीवनी ‘भरपूरू नगवान’ लिखी गई है। इस प्रकार ‘काऽरि तु कबि न हाऽरि’ को उत्तराखण्ड के परिप्रेक्ष्य में पुत्र द्वारा लिखी गई पिता की महत्वपूर्ण जीवनी भी कह सकते हैं। यह तथ्य इसलिए भी उल्लेखनीय है कि जीवनी नायक के जीवन से जुड़ी सूचनाओं और तथ्यों की विश्वश्नीयता, प्रामाणिकता, सूचनाओं के स्रोत और सूचनाओं के आधार का सवाल जीवनी लेखन में महत्वपूर्ण होता है। पुत्र द्वारा लिखी गई पिता की जीवनी के संदर्भ में कम से कम सूचनाओं और तथ्यों की विश्वश्नीयता पर तो भरोसा किया ही जा सकता है।

समाजिक-ऐतिहासिक दस्तावेज है यह जीवनी

पिता की जीवनी लिखते हुए एक बेटे का खुद को अलग रख कर जीवनीकार के रूप में रूपान्तरण या कहें परकाय प्रवेश इस जीवनी की विशिष्टता है। आत्मकथा, आत्मकथ्य, ‘मैं’ और ‘मेरे पिता’ से साफ बच पाना, लेखक का कहीं उपस्थित न होना। लेकिन, प्रभाव का सर्वत्र दिखना, ये खास है इस जीवनी में। लेखक हर समय इसकी घटनाओं और पात्रों से तदात्म्य स्थापित किये दिखते हैं। यह जीवनी सिर्फ पारिवारिक विवरणों और सूचनाओं का संकलन न होकर उस दौर के सामाज और संस्कृति की प्रमाणिक और सम्यक जानकारी का एक दस्तावेज लगती है। जीवनी नायक के संघर्ष सामाजिक संघर्षों के प्रतिबिम्ब हैं। वैयक्तिक विवरणों के बजाय उस दौर की सामाजिक तस्वीर इसे ऐतिहासिक दस्तावेज बना देती है। जीवनी नायक के जीवन के बहाने पूरे समाज का जीवन इसमें आया है। यह पुस्तक संस्मरण भी हो सकती थी पर इस दबाव से साफ बचते हुए इस जीवन चरित के तथ्यनिरूपण में साहित्यिक रागात्मकता और प्रतिभा का सम्यक उपयोग दिखता है।
सचेत और कलात्मक ढंग से लिखी इस जीवनी का भाषाई प्रयोग भी अनूठा है। इससे यह औपन्यासिक प्रभाव लिए साहित्यिक कृति प्रतीत होती है। इस प्रयोग से जीवनी नायक के अंचल, समय और वातावरण की सोंधी खुशबू पाठकों के समक्ष हरदम महकती रहती है। विवरण और सूचनाएं रसीली लगती हैं। भाषाई प्रयोग से कथनों में विश्वश्नीयता और प्रामाणिकता बढ़ जाती है इससे पाठकों का पूरी कथा के साथ भावनात्मक लगाव बना रहता है।
एक ऐसे व्यक्ति की जीवनी जिसे कम उम्र में लकवा मार गया था। लेकिन, उन्होंने अच्छे स्वास्थ्य के साथ 85 वर्ष का जीवन जिया, तीसरी कक्षा से स्कूल छूट गया। लेकिन, अपनी औपचारिक शिक्षा पूरी की और नौकरी प्राप्त की। इस जीवनी को आप अपनी स्मृतियों का दस्तावेजीकरण, एक घर और परिवार को स्थापित करने में एक पिता द्वारा किये गए संघर्षां की दास्तां, एक आदर्श और कर्मयोगी शिक्षक, जिम्मेदार पिता-पति, पहाड़ी किसान और गृहस्थ की कथा, आम आदमी की खास जीवनी और साधारण शिक्षक की असाधारण जीवनी के रूप में भी देख सकते हैं।

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