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कवि जसवीर सिंह हलधर की ग़ज़ल… सभ्यता लौटी नहीं अब तक फिरंगी झील से..

जसवीर सिंह हलधर
देहरादून, उत्तराखंड
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ग़ज़ल (हिंदी)
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सभ्यता लौटी नहीं अब तक फिरंगी झील से।
हंस लड़ लड़ मर रहे हैं मांस खाती चील से।

कल अँधेरे औ उजाले ने बहस की भूख पर,
भुखमरी रोती रही यह देख कर सौ मील से।

देखने को यह तमाशा हम गए थे दूर से,
रोशनी बाहर न आयी कागजी कंदील से।

दूध की नदियां बहाने की कसम खाते रहे,
जंगलों की मुर्गियां भी छीन लाये भील से।

आढ़ती के जाल में खेती किसानी कैद है,
जुर्म भाषण दे रहा कानून पर तहसील से।

यज्ञ की बेदी नहीं बारूद का घर मानिए,
लग न जाये आग ये थोड़ी हमारी ढील से।

मूल में आतंक के इस्लाम ही क्यों लिप्त है,
आयतें पढ़ लो जरा कुर-आन की तफ़सील से।

रोज “हलधर” खोजता कानून में क्या खोट है,
खेत के कानून की चौकी ठुकी है कील से।
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सर्वाधिकार सुरक्षित
प्रकाशित…..23/02/2021
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