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और एक दिन, आत्मीयता ने उस पर विजय प्राप्त कर ली…

निकी पुष्कर
देहरादून, उत्तराखंड
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जिज्ञासाएँ,
निकटता को लालायित थीं
और कौतूहल
अनौपचारिकता को
उतावला था

संवाद,
सामीप्य के लिए
निरन्तर प्रयासरत थे
और अपरिचितता
बेतक़ल्लुफी के लिए

और एक दिन,
आत्मीयता ने
उस पर विजय प्राप्त कर ली
अब संवाद दो-तरफा थे
बेतक़ल्लुफी हद बढ़ाने लगी
तो कई राज साझा किए जाने लगे
डिजिटल वार्तालाप गवाह है
कि,
मन के तार जोड़ने के लिए
किसी साक्षात्कार की आवश्यकता नहीं होती
और प्रेम के लिए किसी आश्वस्ति की

यद्यपि,
सब कुछ निर्मल जल सा दृष्टव्य था
तथापि,
एक निश्चितता की आश्वस्ति
प्रतिपक्ष के लिए अपेक्षित थी
अब अन्तस के पर्तों की

अनवरत थाह ली जाने लगी
और अत्यंत भावुक क्षणों मे
अन्तरमन की सरिता बह निकली….

अब एक “सामान्य” को
उसकी ‘विशेषता’ ज्ञात हो चुकी थी

अब दृश्य परिवर्तन हो गया
जिज्ञासा की विकलता
उदासीन हो गई
अब कौतूहल की लालसा
हिमखंड सी हो गई

अब कोई राज बेचैन न करता था
अब अनौपचारिकता का खुलापन
आकर्षित न करता था

अब संवाद नज़रअंदाजी से चोटिल थे
अब संदेश अनदेखी से आहत थे
अब आत्मीयता बेरुखी से कुंठित थी
और,
विश्वास शर्मिंदगी से प्रताड़ित था

कोई महत्ता जान
कितना निष्ठुर बन गया था
और किसी ने मन खोलकर
स्वयं को
कितना महत्वहीन कर दिया था।।

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