वरिष्ठ रचनाकार डॉ अलका अरोड़ा की एक रचना … मेरा स्वाभिमान है यह
डॉ अलका अरोड़ा
प्रोफेसर, देहरादून
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मेरा स्वाभिमान है यह
मैं गिरकर उठने का हुनर अब जान गई हूं
किलिष्ट प्रकृति का आवरण पहचान गई हूं
तीन लोकों की करती हुई आज अगुवाई
जीवन -मृत्यु का मैं ही निरन्तर सेतु बनी
जिंदगी बढ़ाती हूँ मुकाम के अन्वेष पर
संभालें रखती हूँ सृष्टि के अवशेष सब
तकदीर के पन्ने पलटने का रखती हूं दम
स्वरचित कहानी के किरदार जीती हूं सब
रुक कर रोती न किस्मत को कोसती अब
कथनी करनी का तारतम्य बिठा चलती हूं
पहचान जाहिर करती दिखती समाज पर
डिगाती नहीं स्वाभिमान पहले से बेहतर हूँ
बेलौस शक्ति के साहस से जीता है डर को
आशा संग बढ़ी प्रतिपल अनिश्चित डगर पर
मंजिल पर नजर थमी है मेरी पल-पल
अन्जान डगर बढ़ी, विश्वास की थामें गठरी
अब झुकने की मेरी बारी बिल्कुल नहीं है
‘सुनो सुनो’ सुनते मेरी जिंदगी सब व्यर्थ गई
जीवन कालचक्र में सिक्का मेरा मजबूत हुआ
कहो कहो’ कहने वालों को शामिल किया
मैं बोलूंगी तुम सुनोगे, नियम आज से बदला
सीता अहिल्या मीरा जैसी, मैं बिल्कुल नहीं
मेरा अपना मुकाम जग में, अपनी है पहचान
इसीलिए खुद, फैसले लेने का मिला अधिकार
मत ढूंढो मुझ में निर्बल अबला सदियों पुरानी
तोड़ चुकी जंजीरे अज्ञान और भेदभाव की
ऊँच-नीच और असमानता आज जान गई है
स्वतंत्रता की कीमत भी पहचान गई है
आत्मनिर्भरता, जागरूकता और साक्षरता ने
बदल डाला है सदियों पुराना मेरा स्वरूप
किंचित अभिमानी हूं आज इस दौर मे मैं
आत्म स्वाभिमानी जीवन प्रण लिए खड़ी मैं
घर समाज दफ्तर एवं राष्ट्र के प्रहरी बनी हूँ
मैं ही बदल चुकी हूं सफलता के सोपान पर
मत दबाओ मेरे आत्म बल व अभिमान को
मिटने नहीं दूंगी मैं अपनी नई पहचान को
मैं जागी हूं, सजग खडी हूँ, अनवरत चलूंगी
मुझसे मिलकर धरती आकाश का कद बढ़ेगा
नई पीढ़ी को ,स्वाभिमान से, आह्लादित हो
गौरवमई धरा पर जीने का संबल मिलेगा