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कवि/शाइर जीके पिपिल की एक ग़ज़ल … क़ैद होकर अपने आप में घुटन में मज़ा आ रहा है

जीके पिपिल
देहरादून, उत्तराखंड


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गज़ल

क़ैद होकर अपने आप में घुटन में मज़ा आ रहा है
लुटकर किसी के प्यार में लुटन में मज़ा आ रहा है

ज़माने में गुलाब होने की कीमत चुकानी पड़ती है
गुलाब बनकर कांटो की चुभन में मज़ा आ रहा है

किसी के स्पर्श से तन मन आनंदित हुऐ कुछ ऐसे
जैसे बरसात में बूंदों की छुअन में मज़ा आ रहा है

एक ज़माना था जब किसी के लिऐ तड़पते रहे थे
अब तो गम के घावों की दुखन में मज़ा आ रहा है

जबसे जाना कि टूटकर बिखरना भी अन्त नहीं है
तब से प्यार में टूटकर भी टुटन में मज़ा आ रहा है

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