कवि जीके पिपिल की एक ग़ज़ल…… नाबीना ख़ुद की परछाई क्या जाने
जीके पिपिल
देहरादून, उत्तराखंड
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गज़ल
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नाबीना ख़ुद की परछाई क्या जाने
तिनका जल की गहराई क्या जाने।
जो खाता है हमेशा मुफ़्तखोरी की
वो दाल रोटी की कमाई क्या जाने।
दाल रोटी का भाव मजदूर से पूछो
ये टाटा अंबानी महँगाई क्या जाने।
जो बेग़ैरत और बेशर्मी के हामी हैं
वो बदनामी या रुसवाई क्या जाने।
जो शोले और शरारों में ही रहते हैं
वो शीतलता की पुरवाई क्या जाने।
जिनके तन में लहू की हरारत नहीं
वो टूटे तन की अँगड़ाई क्या जाने।
आँसू बहुत मूल्यवान निधि होते हैं
इनके दाम कोई हरजाई क्या जाने।
पतन के गर्त में गिरना हो जिसको
वो गहरा कुँआ या खाई क्या जाने।