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कवि/शाइर जीके पिपिल की एक ग़ज़ल… महबूबा अपनी सलामत रहे उम्र दराज़ हो जाये..

जीके पिपिल
देहरादून, उत्तराखंड


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गज़ल

हर लफ़्ज़ इश्क़ में डूबा हुआ अल्फ़ाज़ हो जाये
अपनी मोहब्बतों का इस तरह आग़ाज़ हो जाये।

आज भले ही सर को कोई दस्तार मिले न मिले
मगर अपने सर पर मोहब्बतों का ताज हो जाये।

सब को इज़ाजत और छूट मिले प्यार करने की
कहीं कोई पाबंदी नहीं हो ऐसा समाज हो जाये।

आँधियाँ भी चलती रहें और दीये भी जलते रहें
काम इसी तरह करो भले कोई नाराज़ हो जाये।

हमने जब जब सजदा किया यही दुआ माँगी है
महबूबा अपनी सलामत रहे उम्र दराज़ हो जाये।

वो मंजर दिल को सुकून देने वाले मंजर होते हैं
जब आँखें कहें और ख़ामोशी आवाज़ हो जाये।

राजदारी की भी कोई मर्यादा और जिम्मेदारी है
वो राजदार ही कैसा जिससे फ़ास राज हो जाये।

उलफ़्तों के चिराग़ किसी की परवाह नहीं करते
भले ही आँधियों का कैसा भी मिज़ाज हो जाये।

यदि तुम कभी सबके सामने भी मुझे पुकारो तो
ये भी अपनी मोहब्बत का नया अंदाज़ हो जाये।

बहुत दिन से ख्वाहिश थी तुम्हें बाहर घुमाने की
यदि तुम हाँ कहो तो ये काम भी आज हो जाये।।

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