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कवि पागल फकीरा की ग़ज़ल … नासूर पर तो मरहम भी बेअसर से निकले …

पागल फ़क़ीरा
भावनगर, गुजरात

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ग़ज़ल

नासूर पर तो मरहम भी बेअसर से निकले,
करते है याद जिनको वह बेख़बर से निकले।

जब कभी मुझे पुराने दिनों की याद आती है,
तब कभी तेरी याद में उस डगर से निकले।

इश्क़ से महरूम हो कर मधुशाला जाने मैं,
दर्द भुलाने के लिये अपने ही दर से निकले।

यादों की बारात से निकाले मैंने ख़ुशी के पल,
ज़िन्दगी में वो पल आज अब्तर से निकले।

लोगों में ख़ुशियाँ बांटता रहता हूँ मैं दिन भर,
अकेले में दिल के ये आँसू भीतर से निकले।

ग़म बेतहाशा दिया तूने फिरभी दिल से आज,
तेरे लिये ख़ुशियों की दुआ अन्दर से निकले।

“फ़क़ीरा” इश्क़ को ज़िन्दगी की जन्नत समझा,
पर ये हालात जहन्नुम से भी बदतर से निकले।

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डगर – रास्ता
महरूम – वंचित
दर – दहलीज
अब्तर – बिखरा हुआ
बेतहाशा – बिना सोचे समझे
जन्नत – स्वर्ग
जहन्नुम – नरक, नर्क
बदतर – अधिक बुरा, घटिया

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