युवा कवि/शाइर विजय कपरवान की रचना … भीष्म यहां लाचार खड़ा है राम तुम्हें आना होगा
विजय कपरवान
पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखंड
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युगों युगों की पीड़ा हरने
मुझको मेरे ऋण से तरने
व्याकुल मन की व्यथा मिटाने
उलझे प्रश्नों को सुलझाने
कालचक्र की काल गति को धीरे धीरे टलना होगा
इस कलयुग को द्वापर के रस्ते त्रेता तक चलना होगा
शबरी के झूठे बेरों को फिर अधरों तक लाना होगा
भीष्म यहां लाचार खड़ा है राम तुम्हें आना होगा
श्राप मिला था जन्म लिया था गंगा पुत्र कहलाया था
पिता को संगिनी मिले ब्रह्मचर्य अपनाया था
कई बार पुकारा राजमुकुट ने
पर मैंने ना प्रतिभाग किया, प्रतिज्ञा पर प्रतिबद्ध रहा
हर बार सिहासन त्याग दिया
मेरे रण कौशल के आगे
वीर कोई कभी रुका नहीं
जब तक मैं जीवित था, कुरु वंश कहीं भी झुका नहीं
नतमस्तक कई महारथियों ने मेरे सम्मुख हाथ जोड़ा था,
मेरी जिद के आगे कई बार मृत्यु ने दम तोडा था।
अभिमान नहीं था बस मान बहुत था प्रतिज्ञा का,
मेरे युग मे सम्मान बहुत था जिभ्या का।
अम्बा जब दर-दर भटकी थी,
सच कहता हूं मेरी भी आंखें छलकी थी।
पर प्रतिज्ञा के खातिर मैंने जाने क्या-क्या छोड़ दिया,
गुरु से युद्ध किया और शिष्य धर्म भी तोड़ दिया।
पुरषों की शमशीरें मेरी शौर्य कथाएं लिखती थी,
मुझ अमर भीष्म को लेकिन स्त्री में मृत्यु दिखती थी।
मेरे महाप्रण कि लघु कथा को युग-युग तक पहुचना होगा,
भीष्म यहाँ लाचार खड़ा है राम तुम्हे आना होगा।
लाक्षाग्रह मे लगी आग की लपटों ने आकर समझया था,
ये दुर्योधन किस हद तक जाएगा उस रात स्वप्न ये आया था,
मेरी वाणी सुन क्रूर काल भी रुक जाता था,
मेरे आदेशों पे देवलोक तक झुक जाता था।
पर नियति हाय नियति, प्रतिज्ञा का बोझ ये कंठ सह न सका,
युधिष्ठिर है योग्य बस ये कहना था, पर मैं ये भी कह न सका।
मेरी बूढी आँखों को अभी और रोना था
मेरे लज्जित अधरों को फिर से मौन होना था।
कुलवधू को बाजी बना चौसर पर लगा रहे थे,
कुलदीपक सारे खींच-खींच कर अंधियारे को बुला रहे थे।
माधव के टाले जो रण बेला टली नहीं,
दुर्योधन के आगे फिर मेरी भी चली नहीं।
पाप पुण्य का सही गलत का सब लेखा-जोखा समझाना होगा।
भीष्म यहां लाचार खड़ा है राम तुम्हे आना होगा
मर्यादाएं कुंठित न हो इसिलए मैं बीच खड़ा था।
राजगदी पर आंच न आये इसीलिए मैं युद्ध लड़ा था
जिस अर्जुन को गोद खिलाया उस पर बाण चलाऊं कैसे,
दुर्योधन को वचन दिया है फिर उसको भी झुठलाऊँ कैसे,
युग भी बिता युद्ध भी बिता प्रश्न वहीं पर मौन खड़ा है
अंतर मन मे द्वंद छिड़ा है राष्ट्र बड़ा या धर्म बड़ा है।
फिर शिला बन गई अहिल्या, उसका श्राप मिटाना होगा।।
भीष्म यहाँ लाचार खड़ा है राम तुम्हे आना होगा।।