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रईस फिगार की एक ग़ज़ल… मैंने भी ज़िन्दगी ये किताबों में काट दी..

रईस फिगार
देहरादून, उत्तराखंड
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ग़ज़ल
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राहत में कुछ कटी कुछ अजाबों में काट दी।
महलों के ख़ाब देखे ख़राबों में काट दी।।

डसने लगीं जो मुझको ये तन्हाइयां मेरी।
मैंने भी ज़िन्दगी ये किताबों में काट दी।।

करती रही सवाल ये दुनिया कदम कदम।
हमने हयात अपनी जवाबों में काट दी।।

आंखें ये इंतज़ार तेरा करके सो गईं।
हमने तमाम रात ही खाबों में काट दी।।

पुरखार ज़िन्दगी थी मिले तुम तो ये लगा।
जैसे हयात हमने गुलाबों में काट दी।।

गुमराह होके तुमने तो लब अपने सी लिए।
खुद्दार हम भी थे जो हिजाबों में काट दी।।

जीते रहे “फिगार” हसीं कल की आस में।
हमने तमाम उम्र सराबों में काट दी।।

शाइर परिचय

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