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कवि सुभाष वर्मा की एक रचना, वे तबाही से नजरें चुराते रहे

वे तबाही से नजरें चुराते रहे

पेड़ यूँ ही जमीं से, जो जाते रहे
वे तबाही से नजरें, चुराते रहे
घुस गयी है शहर में, नदी रूठकर
लोग सड़कों पे कश्ती, चलाते रहे
पेड़ यूँ ही जमीं से…….

धरती काट दी है, जड़ें काटकर
आशियाने बनाये, नदी आँट कर
लोग सांसों को अपनी, गँवाते रहे
वे तबाही से नजरें, चुराते रहे
पेड़ यूँ ही जमीं से……..

वे जो पंजा लड़ाते, रहे शेर से
आँखें मूंदे थे, कूड़ों के ढेर से
खुद जहर की, हवा में नहाते रहे
वे तबाही से नजरें, चुराते रहे
पेड़ यूँ ही जमीं से…….

अब सुरंगें बना दी हैं, बारूद से
जिंदगी लड़ रही, खुद ही वजूद से
लोग आँगन को अपने, बचाते रहे
वे तबाही से नजरें, चुराते रहे
पेड़ यूँ ही जमीं से……..

अब शीशों में, दिखने लगी झलकियाँ
छिपकली बन गयी, झील की मछलियाँ
बाढ़ में अपनी, जानें गँवाते रहे
वे तबाही से, नजरें चुराते रहे

पेड़ यूँ ही जमीं से, जो जाते रहे
वे तबाही से, नजरें चुराते रहे
पेड़ यूँ ही……

कवि
सुभाष चंद वर्मा
रक्षा अधिकारी (सेवा निo)
विजय पार्क, देहरादून

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