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तारा पाठक की कहानी … देशी ब्वारी_पहाड़ी ब्वारी

तारा पाठक


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देशी ब्वारी_पहाड़ी ब्वारी

ये उन दिनों की बात है जब घर में _ससुर के सिर ताज और सास का राज था। ननदें राजकुमारियों से कम नहीं थी। पति गूंगा_बहरा और उसकी आँखों में कानून वाली पट्टी बंधी रहती थी और इसी घर में बंधुवा मजदूर के मानिंद रहती थी बौड़ी_ब्वारियां। देशी ब्वारी के भी लटके _झटके पहाड़ वाले सरास में आकर पट्ट बिलै जाते थे। वह मन लगाकर कार (कारोबार) करती थी। माँ_बाप ने भी तो बड़ा कारबार देखकर ही पहाड़ बेवाया कि हमारी बेटी कभी भूखी न रहे।
काम नहीं करेगी तो पक्का भूखी मरेगी।
विदाई के दिन ही माँ समझा देती थी_”चेलिकि मैत बटी डोलि उठें और सरास बटी डाणि।”
छोटे से वाक्य से ही बड़ा अध्याय बेटी को पढ़ा दिया जाता था। बेटी कम उमर की होते हुए भी बहुत कुछ समझ जाती थी कि_अब मैके के दरवाजे उसके लिए पट्ट बंद हो गए।
वह बहुत कम उम्र की होती थी। घास काटने जाती तो घास कम अपनी अंगुलियां ज्यादा काट लाती। गोड़ाई करती तो खुट खोप लाती। धान कूटने उखलसार जाती तो बच्चों के साथ पैदाणि खेलने लग जाती। वह कुछ भी काम करती पता नहीं क्यों डांट ही पड़ती। उसे आँसू बहाने पर “अशकुनी “और मुंँह फुलाने पर “अनेरि मुखी” कहा जाता था। वह हमेशा ननद के रडार में रहती थी। जरा सा सिर से पिछौड़ गिरा नहीं कि सास झुतुरि उचेड़ने आती। होंठों पर जरा सा हँसी की किरन पड़ जाए तो सीधे उसके सतीत्व पर प्रहार करते हुए कहती_
“स्यैणिल बजै दंत ,
बैगैल पै अंत”।

अपने सिर पर से जुएं बीनने के लिए भी ब्वारी को मजबूर करती और कहती_
“जै ब्वारी मन जुंग चाण में नि लागन, वी मन कारबार में के लागल। “ब्वारी के लिए कोई रास्ता नहीं रहता था। बाबू का नाम डूबने से अच्छा था दलदल में अपने ही पड़े रहो। अनेक जीवों (जुओं) की हत्या के पश्चात् कभी _कभार “त्यर भौ हैजौ “करके सास से वरदान मिला जाता। चिहड़ि को जन्म देने वाली ब्वारी की जनमणि तो ज्यूनैं नरग हो जाती थी। भौ होने पर पच्वाइ_सत्वाइ जवाण का पाणि तो चूल्हे में चढ़ जाता, चाहे उसे भी गांँव भर की बुढ़ि आमाएं चट कर जाती थी। चिहड़ि होने पर फिक पाणि (काली चाय) से बहू का कल्ज जलाया जाता। उसे बुढ़ि आमाएं नहीं पीती थी।
भौ हो जाए तो नामकंद तक घर से बाहर भी जाना होता तो बस उज्याव रहते तक। चिहड़ि को काव भी नहीं खाता। तीसरे दिन से
गा्ड़_भिड़ और नामकंद से बण_बोट जाना शुरू हो जाता था। चिहड़ि होने का ब्वारि को इतना ही फायदा होता कि उसे जौव, फाण, ठंडा पानी मिल जाता था। वरना भौ के समय तो खाने का परहेज रहता। जिस ब्वारी के दो चार भौ हो गए तो उसका घर में बर्चस्व बढ़ जाता था। उससे कहते _”कतू शकुनी ऐरै, जदिन बटी यो देइ में तै खुट पड़ौ पिछ्याड़ि कै पूड़ जसि बादि लै।”

धीरे-धीरे ये ब्वारियां इस परिस्थिति में अपने को ढाल लेती थी क्योंकि और कोई चारा ही नहीं था। जब ये सास बनती थी तो उसी हिकारत भरी नजर से बहुओं को देखती, और कहती _”हम न्हैंतियां ब्वारी। हमूंलै कसि_कसि भुगती।”इनकी भी चाहत में भौ की प्राथमिकता रहती थी लेकिन जब बहू पर नजर रखनी होती थी या ब्वारी की काटणी करनी होती थी उस समय बेटी ही होती सहारा।
इतनी बड़ी महाभारत में ससुर के सिर पर मात्र ताज ही था। राजकाज में उनका कोई दखल नहीं होता था क्योंकि जब वर्तमान की सास भूतकाल में बहू थी तो भूतकाल में उसका पति (वर्तमान का ससुर) धृतराष्ट्र और गांधारी दोनों की संयुक्त भूमिका में था।

इस वाक्ये का पूरा निचोड़ इतना ही कि_” उन दिनों शहर से आई ब्वारी भी सब सहन करके पहाड़ का काज सीख जाती थी। उसे गोबर से बास थोड़े ही दिन आती थी फिर सार पड़ जाती थी। वो पहाड़ी भाषा न समझती थी, न बोल ही पाती थी। लेकिन मैके की सीख (चेलिकि मैत बटी डोलि —–) काम कर जाती थी। वो देशी भाषा की तिलांजलि ऐसे ही देती जैसे अपने अधिकारों की। और पहाड़ी भाषा ऐसे याद रखती थी जैसे मात्र अपने कर्तव्य।

खैर समय-समय की बात है, परिवर्तन हमेशा कुछ नया लेकर ही आता है।अब पारी थी पहाड़ी ब्वारी की। इतने अंतराल में सासों का कहना इतना भर रह गया कि_”कलजुग एगो। “बांकी बोलने की उन्हें इजाजत नहीं थी। ननदें या तो होती नहीं या उपस्थिति भर को। न ही उनके पति या बेटे हिम्मत कर पाते हैं, ठीक उसी तरह जैसे देशी ब्वारी के जमाने में।
जानकार लोग (जो पुराने जमाने और वर्तमान समय का लेखा-जोखा रखते हैं) कहते हैं कि_
“आजकल की पहाड़ी ब्वारी को मैके से अधिकारों की सीख दी जाती है।कर्तव्य का ककहरा उन्हें नहीं सिखाया जाता है।”

“पहाड़ी ब्वारी ले_ देकर एक या दो बेटियां होती हैं वे पाँच_सात चिहड़ी नहीं होती हैं।”

“वे पांँच _सात साल की अफाम नहीं ही होती हैं। वे पाँच पच्चे पच्चीस या सात पच्चे पैंतीस की अक्ल बंद होती हैं।”

पहाड़ी ब्वारी स्कूल में कितनी बार फेल हुई इसे इग्नोर किया जाए तो वे गूगल गूरू और यूट्यूब काॅलेज की टॉपर होती हैं।”

“देशी ब्वारी ने चाहे अपनी कितनी अंगुलियां काटी, ये उनकी मूर्खता थी।पहाड़ी ब्वारी अपने नाखून भी नहीं काटती क्या मालूम कभी चिंग्वार लगाने की जरूरत आन पड़े।”

“सिर को ढकने के झंझट से भी उन्होंने मुक्ति पा ली है। ना रहेगा बांस,ना बजेगी बासुरी‌ की धुन में वो गुनगुनाती हैं_”साड़ी ही नहीं रहेगी तो पल्लू का क्या।”

सास की भौ की चाहत भी मार दी है ये कहकर_”तुम्हारे भौ ने जो क्या तोप कर रखा है।”

“देशी ब्वारी ने पहाड़ जाने में कभी ना नुकर नहीं की, अब पहाड़ की ब्वारी से पहाड़ का कार नहीं हो पाता। ग़लती उसकी भी नहीं है ,भला रील बनाने वाले हाथ कुटव_दातुल कैसे पकड़ेंगे।”

सबसे बड़ी मांग पहाड़ की ब्वारी की ये है कि_”मेरी मांग वही भरेगा जिसके_
हल्द्वानी में अपना घर हो।
माँ _बाप का अकेला बेटा हो।
भाई _बहन हों भी तो वो माँ__बाप को लेकर न्यार हो जाएं।”
आगे का गुणगान करने की सामर्थ्य कलम में नहीं है कि_ पहाड़ के लड़के से अच्छा तो हम अलाण_फलाण के साथ भाग जाएं।

@कॉपी राइट

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