रक्षा सूत्र “जनेऊ” मात्र धागा नहीं है
तारा पाठक
@कॉपी राइट
श्रावणी पूर्णिमा को आम बोलचाल की भाषा में “जन्यो पुन्यू” कहा जाता है।इस दिन सभी सनातनी बंधु (जिनका यज्ञोपवीत संस्कार हुआ है) उपवास रखते हुए सामूहिक पूजा-अर्चना के पश्चात् जनेऊ बदलते हैं। गौतम गोत्रीय यथा-तिवारी , त्रिपाठी हर तालिका तीज को जनेऊ पूजन करते हैं।
कैसे बनाई जाती है जनेऊ-
कपास या रेशम के धागे से बनने वाली जनेऊ को तैयार होने तक लंबी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। सूत की लच्छी से चार अंगुलियों में (अंगूठा छोड़कर) छियानवे बार लपेट कर एक तिपल्ली बनती है। एक बार में बहुत सारी तिपल्लियों को बना लेने के पश्चात् इन्हें पानी से गीला करके तकली में काता जाता है, जिससे धागे में पैंण (बल) आ जाती है। एक तकली में बहुत सारी तिपल्लियों को एक साथ कात लिया जाता है। जब तकली की आधारगत गोलाई पूरी तरह से भर जाती है, तब तकली पर से एक-एक करके तिपल्लियों को उतार कर दो जने आमने-सामने होकर रस्सी की भांति बाटते (बल देते) हैं।बाटते समय दोनों के हाथ एक-दूसरे की विपरीत दिशा में चलते हैं। हाथ से नीचे रखते ही तिपल्ली वाला घागा मुड़-मुड़ कर गुच्छी की तरह बन जाता है, जो देखने में उलझा हुआ प्रतीत होता है। अंत में इन तिपल्लियों को पैर के अंगूठे में फंसा कर तीन भागों में बराबर लंबाई लेकर पुनः बाट कर गांठ लगाते हैं, जिसे ब्रह्म ग्रंथ कहते हैं।
एक तिपल्ली से तीन सूत्रीय जनेऊ बनती है। दो तिपल्ली से छ: सूत्रीय जनेऊ बनाई जाती है। जनेऊ को पीला रंगने के लिए हल्दी का रंग बनाया जाता है।
जनेऊ की पवित्रता का ध्यान रखना बहुत जरूरी है-
धागे की गुच्छी से लेकर जनेऊ बनाने, प्रतिष्ठा के पश्चात् धारण करने पर इसकी पवित्रता का हमेशा ध्यान रखना चाहिए। शौच के वक्त जनेऊ को दाहिने कान में दो बार लपेट लेना चाहिए, जिससे कमर से ऊपर रहे। इसे धारण करना तभी सार्थक माना जाएगा जब धारण करने वाला तन-मन से पूर्ण शुचिता का ध्यान रखेगा।
कब और क्यों जनेऊ बदलनी चाहिए
घर में नवजात के जन्म पर एवं सूतक पर जनेऊ बदली जाती है या जनेऊ के धागे टूट जाएं, तब खंडित जनेऊ नहीं पहननी चाहिए। अपवित्रता की स्थिति में भी जनेऊ बदली जाती है।
कैसे धारण करते हैं जनेऊ
आमतौर पर जनेऊ बांए कंधे के ऊपर से दाईं भुजा के नीचे को पहनी जाती है, जिसे ‘सव्य’ कहते हैं। श्राद्ध या पितृ कर्म के समय दाएं कंधे के ऊपर से पहनते हैं, जिसे ‘अपसव्य’ कहते हैं।
उपनयन संस्कार के पश्चात् ही क्यों पहनते हैं जनेऊ
द्विज समूह द्वारा उच्चारित वेद मंत्रों के साथ ही यज्ञ की पवित्र अग्नि आहूत करके यज्ञोपवीत संस्कार करने से व्यक्ति में पात्रता का आविर्भाव होता है। संस्कार विहीन व्यक्ति इसको धारण करने योग्य नहीं माना जाता।
रक्षा सूत्र है जनेऊ
जनेऊ मात्र धागा न होकर आध्यात्मिक एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण से रक्षा सूत्र मानी गई है। नियम पूर्वक संध्या वंदन, गायत्री मंत्र जाप करने से सद्गुणों का विकास होता है। जब तक यज्ञोपवीत शरीर में रहता है, व्यक्ति को चारित्रिक पतन से बचाता है। आधुनिक जीवनशैली के कारण व्यक्ति पूरी तरह से नियमों का पालन नहीं कर पा रहा है। कुछ लोगों की मानसिकता में भी बदलाव आया है (ऐसा करने न करने से क्या फर्क पड़ता है)। कई लोग जनेऊ को फैशन में बाधा के तौर पर या पिछड़ेपन के तौर पर भी देखते हैं। अवसर विशेष पर जनेऊ को खूंटी में टांगने से भी नहीं हिचकते हैं, जबकि, जनेऊ के धागे टूट जाने की स्थिति में अन्न-जल ग्रहण नहीं कर सकने का विधान है।
जनेऊ बदलने या साफ करने का तरीका
जीर्ण, क्षत सूत्र या रंगहीन जनेऊ को बदल कर नया जनेऊ धारण कर लेना चाहिए। बदलते समय ‘एतावद्दिन पर्यन्तं ब्रह्म त्वं धारितं मया. जीर्णत्वात्वत्परित्यागो गच्छ सूत्र यथा सुखम्’ इस मंत्र का उच्चारण करना चाहिए। नहाते वक्त जनेऊ को साफ करने हेतु शरीर से उतारते नहीं, दो हाथों से पकड़ कर गोल-गोल घुमाते हुए साफ करना चाहिए।
जन्यो पुन्यू (श्रावणी उपाकर्म) की विधि
श्रावणी पूर्णिमा पर सभी व्रत करने वालों को नदी के तट पर पंचगव्य (गाय के दूध, दही, घी, गोबर, गोमूत्र और पवित्र कुशा) से स्नान करना चाहिए। इसके बाद ऋषि पूजन, सूर्योपस्थान और यज्ञोपवीत पूजन करने के बाद नया यज्ञोपवीत (जनेऊ) धारण करना चाहिए। भद्रा काल में राखी या जनेऊ धारण नहीं करना चाहिए।
नया जनेऊ धारण करते समय का मंत्र
‘ॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं, प्रजापतेयर्त्सहजं पुरस्तात्। आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुञ्च शुभ्रं, यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।।’
समय के साथ जनेऊ एवं जन्यो पुन्यू में भी आया बदलाव
पूर्व, समय में जनेऊ बनाने के लिए पवित्रता एवं उचित विधि का हमेशा ध्यान रखा जाता था। ज्येष्ठ मास में दशहरे का पर्व होने के पश्चात् ब्राह्मण वृत्ति वाले लोग जनेऊ कातने में जुट जाते थे। घर के सदस्य भी दैनिक कार्यों के साथ-साथ ही जनेऊ बनाने में मदद करते थे। आते-जाते लोगों के हाथ में तकली नाचती दिख जाती थी।शाम के समय हरेक खा्व (आंगन) में जनेऊ के पल्ले बाटते लोग मिलते। नीचे-ऊपर की बाखली के लोग एक जगह एकत्रित होकर सामाजिक मुद्दों पर चर्चा के साथ-साथ जनेऊ बनाने एवं नई पीढ़ी को सिखाने का काम भी करते थे।
जन्यो पुन्यू के दिन पूरे गाँव में से लोग एक घर में एकत्रित होकर सामूहिक पूजा करते थे। ब्राह्मण देवता सभी को रक्षा धागा भी बाँधते थे। उन दिनों राखी शब्द गाँवों में सुनने में नहीं आता था। रंगीन धागे (रक्षा धागा) बांधते समय मंत्र उच्चारण भी करते थे-
‘येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः। तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे मा चल मा चल॥ इस मंत्र का सामान्यत: यह अर्थ लिया जाता है कि
दानव राज महा दानी राजा बलि जिससे बांधे गए थे, उसी से तुम्हें बांधता हूं। जो कि तुम्हारी अटल रक्षा करेगा।’
सेल्फी के दौर में मंत्रों की गूंज कहीं खो सी गई है। त्योंहार हम पहले की अपेक्षा अधिक धूमधाम से मना रहे हैं, जिसका कारण आर्थिक स्थिति में सुधार होना माना जाएगा। आत्मिक जुड़ाव, अंतर्मन का उल्लास एवं उत्सवों-पर्वों का मूल स्वरूप दिन-प्रतिदिन लुप्त होता जा रहा है।