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कवि/शाइर जीके पिपिल की गज़ल … आज़ इस क़दर इम्तिहान ले रही है ज़िंदगी

जीके पिपिल, देहरादून

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गज़ल

आज़ इस क़दर इम्तिहान ले रही है ज़िंदगी
चाहिए नहीं फिर भी जान दे रही है ज़िंदगी

ज़िंदगी को समझना बड़ा मुश्किल काम है
ये कटे पंखों से भी उड़ान ले रही है ज़िंदगी

ये तो बिलकुल भी बराबर का सौदा नहीं है
जमीं को देकर आसमान ले रही है ज़िंदगी

कहीं रेंग रेंग कर घिसटना भी मुहाल है इसे
तो कहीं सागर सा उफ़ान ले रही है ज़िंदगी

कहीं दुनियां में ईमान के लिए झगड़ रही है
कहीं जीने के लिए ईमान ले रही है ज़िंदगी

जाने कब ये अपना आखरी फ़ैसला सुना दे
लेने को तो हर पल बयान ले रही है ज़िंदगी

कहीं सफ़र को मुकम्मल करने की खातिर
दवा दुआओं के एहसान ले रही है ज़िंदगी

हम तो पहले ही मर चुके हैं ज़माने के लिए
अब क्यों मौत के सामान ले रही है ज़िंदगी

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