कवि/शाइर जीके पिपिल की एक गज़ल… सहर भी कब की हो गई आंखों में रात रह गई
जीके पिपिल
देहरादून, उत्तराखंड
गज़ल
सहर भी कब की हो गई आंखों में रात रह गई
मुलाक़ात भी हुई मग़र होने वाली बात रह गई
नाटक ख़त्म हुआ क़िरदार लिबास बदल चुका
जैसी पहले थी वैसी की वैसी क़ायनात रह गई
हसरतें तो बहुत थीं कि हम तक्सीम कर जाते
रुख़सत हो गए और बिना बांटे ख़ैरात रह गई
मदार को छोड़कर मदारी कब का निकल गया
फ़िर इंतज़ार में तमाशबीनों की ज़मात रह गई
लुटने का मेरे ख़वाब पर अब इतना है तपसरा
लगता है जैसे ज़िंदगी दूल्हे बिन बरात रह गई
मेघों ने भी भटककर अपना रास्ता बदल दिया
धरा ही नहीं पानी को तरसती बरसात रह गई
मंज़िल तो क्या किसी मुक़ाम तक न जा सका
क़ाफ़िले ने कूंच किया होकर शुरुआत रह गई
होना था अभी फ़ैसला किसी की हार जीत का
खेल भी समाप्त हो गया बिछी बिसात रह गई।