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वरिष्ठ कवि/शाइर जीके पिपिल की एक ग़ज़ल …

जीके पिपिल
देहरादून, उत्तराखंड

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गज़ल

अब अपने आप को टुकड़ों में खानों में बांटना छोड़ दे
चापलूसी में हर ऐरो गैरों के तलवों को चाटना छोड़ दे

आजकल ईंट का जवाब पत्थरों से देते हैं दुनियां वाले
औरों की छोड़ो अपनी औलाद को भी डांटना छोड़ दे

बहादुरी किसी तगमे या मैडल की मोहताज नहीं होती
उनको नुमाइश के लिए अपने सीने पर टांगना छोड़ दे

ईश्वर ने मौका दिया है तो समाज की कुछ सेवा कर ले
दायित्व के निर्वहन में मुफ़्त की मलाई काटना छोड़ दे

चेहरे से लोगों के दिल का पता नहीं लगा सकता कोई
उन्हें परख कर देखना सिर्फ़ आंखों से आंकना छोड़ दे

सभी एक ईश्वर से बने हुए हैं चाहे किसी भी धर्म के हैं
सबको बराबर समझ मज़हबी चस्मे से छांटना छोड़ दे

कभी तेरा चमन भी महकेगा संवारना इसे मनोयोग से
लेकिन तू इधर उधर गैरों के आंगन में झांकना छोड़ दे।

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