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अतीत के झरोखे से… देहरादून के मोती बाजार में थे कोठे, सजती थी मुजरे की महफिलें

-वर्तमान पीढ़ी मोती बाजार को फर्नीचर के बाजार के रूप में जानती है। लेकिन, अतीत में मोती बाजार कोठों का बाजार हुआ करता था यानी आज की भाषा में रेड लाइट एरिया। आपके लिए अतीत के झरोखे से देहरादून के मोती बाजार पर वरिष्ठ पत्रकार वीरेन्द्र डंगवाल “पार्थ” की एक खास रिपोर्ट।

वीरेन्द्र डंगवाल “पार्थ”
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‘इन्हीं लोगों ने ले लीनहा दुपट्टा मेरा .. हाय दुपट्टा मेरा’ बोल पर मुजरा करती मशहूर अभिनेत्री मीना कुमारी की कातिल अदाओं पर नोटों की बरसात होती है फिल्मी पर्दे पर। तो लखनऊ की महफिलों की रौनक उमराव जान पर बनी फिल्म में ‘इन आंखों की मस्ती के दीवाने हजारों हैं’ गाते हुए मशहूर अभिनेत्री रेखा खूब रिझाती है। यह फिल्मी महफिलों के दृश्य हैं। लेकिन, एक जमाने में असलियत में भी मनोरंजन के साथ-साथ गायन और नृत्यकला की समृद्ध परंपरा का प्रदर्शन करते थे मुजरे। हालांकि, फिल्मों का मुजरा अश्लीलता के बाजार का प्रतिनिधित्व करता था। लेकिन, सच यह भी है कि कभी इस तरह की महफिलों का एक पाक बाजार हुआ करता था और मुजरा करने वालियों की बड़ी कद्र होती थी।

यह तो हुई फिल्मों की बात। अब आपको एक सच्चाई से रूबरू करवाते हैं और वह सच्चाई है कि द्रोण नगरी यानी आज के उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में भी मुजरे की महफिलें सजा करती थी। आज फर्नीचर की दुकानों के लिए पहचाने जाने वाला मोती बाजार कभी घुंघरुओं की खनक से गूंजता था। जी हां मोती बाजार में कोठे हुआ करते थे यानी आज की भाषा में मोती बाजार रेड लाइट एरिया हुआ करता था।

औरंगजेब के समय देहरादून में शुरू हुआ मनोरंजन का बाजार

औरंगजेब के समय में देहरादून में मनोरंजन बाजार का उदय और ब्रिटिश शासन में विकास हुआ, जो बाद में मोती बाजार के नाम से पहचाना गया। वर्तमान पल्टन बाजार से सटे मोती बाजार और हनुमान चौक के पास पीपल मंडी तक कोठे थे, जो शाम ढलते ही गुलजार उठते थे। वहां पर नियमित रूप से मुजरे हुआ करते थे।

बाजार की रौनक थी मोती जान, उसी के नाम पड़ा बाजार का नाम

देहरादून में मनोरंजन का बाजार शुरू होने पर एक रसूखदार के साथ अवध से मोती जान नाम की एक महिला यहां आई थी।नाम के ही अनुरूप वह बेइंतेहा खूबसूरत थी। जल्द ही उसके हुस्न के चर्चे देहरादून में होने लगे। बाजार में उसका एक छत्र राज हो गया। उसकी खूबसूरती पर फिदा देहरादून के जमींदार ने अपनी जमीन मोती जान के नाम कर दी और उसी नाम से बाजार का नाम मोती बाजार रख दिया। आज का जो मोती बाजार है, उस बाजार की पूरी जमीन एक जमींदार ने मोती जान के नाम की थी।

मनोरंजन के बाजार से जुड़े थे 400-500 लोग

देहरादून के मोती बाजार के इन कोठों में दिल्ली व अन्य प्रदेशों की मुजरेवालियों के साथ ही कुछ स्थानीय महिलाएं भी थीं। वह अपने पालन पोषण के लिए इन कोठों में मुजरा करती थी। उस वक्त इस बाजार से 400-500 महिला पुरुष जुड़े हुए थे। मोती बाजार में कतार से ऐसे मकान कोठे थे जहां नियमित रूप से मुजरे हुआ करते थे।

मशहूर थी मोती बाजार की श्यामा भी

मोती बाजार में श्यामा बिल्डिंग बहुत मशहूर थी। इसकी मालकिन श्यामा का बाजार में अच्छा खासा रुतबा था। आजादी के बाद जब बाजार बन्द हुआ तो श्यामा ने भी शादी कर घर बसा लिया। श्यामा अपने फौजी अफसर पति के साथ भोपाल में बस गई। श्यामा के दो बेटे और एक बेटी हुई। श्यामा बेटे भी फौज (एयर फोर्स) में उच्च पद पर रहे। भोपाल में बसने के बाद भी मोती बाजार का मकान (कोठा) श्यामा के नाम पर ही रहा। बाद में श्यामा के बेटों ने वह मकान बेच दिया। आज से 16 वर्ष पहले श्यामा का भोपाल में निधन हुआ।

देहरादून में 1954-55 तक रहे कोठे

मनोरंजन की दुनिया का यह बाजार देहरादून में आजादी के बाद भी लगभग 1954-55 आबाद रहा। बाद में भारत सरकार की पाबन्दी से बाजार बंद हो गया। इन कोठों पर मुजरा करने वाली कई महिलाएं दिल्ली व मुंबई चली गई तो कुछ ने शादी कर घर बसा लिया।

गुरु के सानिध्य में होता था प्रशिक्षण

कोठों पर होने वाला मुजरा व मुजरेवाली सभ्य समाज के लिए भले ही अपवित्र हों। लेकिन, इस कला को वह कड़ी मेहनत के साथ बड़े जतन से सीखती थीं। उसके लिए वे बाकायदा वर्षों संगीत व नृत्यकला का प्रशिक्षण लेती थीं। उनके लिए गुरु की व्यवस्था की जाती थी। उस वक़्त मुजरा सिर्फ हुस्न के बाजार की रौनक भर नहीं था। बल्कि, राजा महाराजा व धन्ना सेठ अपने घरों में शादी ब्याह व अन्य शुभ अवसरों पर मुजरे की महफिलें सजवाते थे। मजरा करने वालियों को सम्मान के साथ आमंत्रित किया जाता था।

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प्रकाशित…..14/02/2021
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