दरार एक होती तो शायद भर भी जाती …

जीके पिपिल
देहरादून।
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गज़ल
दरार एक होती तो शायद भर भी
जाती यहां तो आइना ही चकनाचूर है
अब वो पास आ भी जाए तो क्या
अपने दिल से तो सदा के लिए दूर है
ज़माने की नज़र से देखोगे तो रंग
अब भी सुर्ख दिखाई देता है मेरा
मग़र हक़ीक़त ये है कि आज वज़ूद
मेरा किसी विधवा का सिंदूर है
बेशक़ उसमें अभी तेल है और बाती
भी है मग़र उसको बुझना ही पड़ेगा
एक दीया उसके मुक़ाबिल जलने की
जुर्रत करे ये तूफा को नहीं मंज़ूर है
हमने उसकी इबादत नहीं बल्कि
मेहनत की थी उसको पाने की ख़ातिर
और उसी मेहनत की मजदूरी के
इंतज़ार में ही तो ये बेचारा मज़दूर है
ग़लती अपनी इन आंखों की नहीं
थीं जो ख़्वाब देख बैठी थीं मिलन के
अश्कों की गवाही बताती है कि आंखों
का नहीं ये तो दिल का क़सूर है
मोहब्बत के आइने में कोई अपना
अक्स देखना ही नहीं चाहता आज भी
शुरू से ही दुनियां का यही रिवाज़ है
और आज भी वही पुराना दस्तूर है
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07052025