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कवि/शाइर जीके पिपिल की एक ग़ज़ल … जब से हम उनके ख्वाबों की कोई ताबीर ना रहे

जीके पिपिल
देहरादून, उत्तराखंड

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गज़ल

जब से हम उनके ख्वाबों की कोई ताबीर ना रहे
हम उनकी कोई मिल्कियत कोई जागीर ना रहे

हमारी औकात क्या हमारी हस्ती भी कुछ नहीं
हम ज़िंदादम थे जो अब कब्र की तामीर ना रहे

जब उन्होंने अपनी उल्फत का फ़्रेम बदल दिया
तो हम भी उनके किसी फ़्रेम की तस्वीर ना रहे

फिर किसी और बदन की शायरी मीठी ना लगी
जब उन सी मिठास वाले दाग़ ना रहे मीर ना रहे

वक्त के साथ साथ सब कुछ बदल जाता है यहां
अब हम भी टूटी लाठी हैं वो भी शमशीर ना रहे

वो आज़ भी एक शिकार बनकर रूबरू है जैसे
और हम एक टूटा तरकश हैं जिसमें तीर ना रहे

आजकल तो रिश्ते एक पल में ख़त्म हो जाते हैं
आजकल मोहब्ब्तों में पहले वाले ज़मीर ना रहे

मोहब्बत आज़ भी उस मौज की तरह प्यासी है
जिसके लिए नदिया तो है पर उसमें नीर ना रहे।

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